दोहा:
मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद ।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ॥ ११७ क ॥
जिनको मुनि ध्यान में भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपा के समुद्र श्री रामजी वानरों के साथ अनेकों प्रकार के विनोद कर रहे हैं ॥ ११७ (क) ॥
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम ।
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥ ११७ ख ॥
(शिवजी कहते हैं - ) हे उमा! अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचंद्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं ॥ ११७ (ख) ॥
चौपाई :
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए । पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए ॥
नाना जिनस देखि सब कीसा । पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥ १ ॥
भालुओं और वानरों ने कपड़े-गहने पाए और उन्हें पहन-पहनकर वे श्री रघुनाथजी के पास आए । अनेकों जातियों के वानरों को देखकर कोसलपति श्री रामजी बार-बार हँस रहे हैं ॥ १ ॥
चितइ सबन्हि पर कीन्ही दाया । बोले मृदुल बचन रघुराया ॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार्यो । तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार्यो ॥ २ ॥
श्री रघुनाथजी ने कृपा दृष्टि से देखकर सब पर दया की । फिर वे कोमल वचन बोले - हे भाइयो! तुम्हारे ही बल से मैंने रावण को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक किया ॥ २ ॥
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू । सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू ॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर । जोरि पानि बोले सब सादर ॥ ३ ॥
अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ । मेरा स्मरण करते रहना और किसी से डरना नहीं । ये वचन सुनते ही सब वानर प्रेम में विह्वल होकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक बोले - ॥ ३ ॥
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा । हमरें होत बचन सुनि मोहा ॥
दीन जानि कपि किए सनाथा । तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा ॥ ४ ॥
प्रभो! आप जो कुछ भी कहें, आपको सब सोहता है । पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है । हे रघुनाथजी! आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं । हम वानरों को दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृतार्थ) किया है ॥ ४ ॥
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं । मसक कहूँ खगपति हित करहीं ॥
देखि राम रुख बानर रीछा । प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा ॥ ५ ॥
प्रभु के (ऐसे) वचन सुनकर हम लाज के मारे मरे जा रहे हैं । कहीं मच्छर भी गरुड़ का हित कर सकते हैं? श्री रामजी का रुख देखकर रीछ-वानर प्रेम में मग्न हो गए । उनकी घर जाने की इच्छा नहीं है ॥ ५ ॥