चौपाई :
करि बिनती जब संभु सिधाए । तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी । बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥ १ ॥
जब शिवजी विनती करके चले गए, तब विभीषणजी प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले - हे शार्गं धनुष के धारण करने वाले प्रभो! मेरी विनती सुनिए- ॥ १ ॥
सकुल सदल प्रभु रावन मार्यो । पावन जस त्रिभुवन विस्तार्यो ॥
दीन मलीन हीन मति जाती । मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥ २ ॥
आपने कुल और सेना सहित रावण का वध किया, त्रिभुवन में अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीन पर बहुत प्रकार से कृपा की ॥ २ ॥
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे । मज्जन करिअ समर श्रम छीजे ॥
देखि कोस मंदिर संपदा । देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥ ३ ॥
अब हे प्रभु! इस दास के घर को पवित्र कीजिए और वहाँ चलकर स्नान कीजिए, जिससे युद्ध की थकावट दूर हो जाए । हे कृपालु! खजाना, महल और सम्पत्ति का निरीक्षण कर प्रसन्नतापूर्वक वानरों को दीजिए ॥ ३ ॥
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ । पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला । सजल भए द्वौ नयन बिसाला ॥ ४ ॥
हे नाथ! मुझे सब प्रकार से अपना लीजिए और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी को पधारिए । विभीषणजी के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया ॥ ४ ॥
दोहा :
तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात ।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥ ११६ क ॥
(श्री रामजी ने कहा - ) हे भाई! सुनो, तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह सच बात है । पर भरत की दशा याद करके मुझे एक-एक पल कल्प के समान बीत रहा है ॥ ११६ (क) ॥
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि ।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि ॥ ११६ ख ॥
तपस्वी के वेष में कृश (दुबले) शरीर से निरंतर मेरा नाम जप कर रहे हैं । हे सखा! वही उपाय करो जिससे मैं जल्दी से जल्दी उन्हें देख सकूँ । मैं तुमसे निहोरा (अनुरोध) करता हूँ ॥ ११६ (ख) ॥
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर ।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥ ११६ ग ॥
यदि अवधि बीत जाने पर जाता हूँ तो भाई को जीता न पाऊँगा । छोटे भाई भरतजी की प्रीति का स्मरण करके प्रभु का शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है ॥ १६६ (ग) ॥
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं ।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं ॥ ११६ घ ॥
(श्री रामजी ने फिर कहा - ) हे विभीषण! तुम कल्पभर राज्य करना, मन में मेरा निरंतर स्मरण करते रहना । फिर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहाँ सब संत जाते हैं ॥ ११६ (घ) ॥
चौपाई :
सुनत बिभीषन बचन राम के । हरषि गहे पद कृपाधाम के ॥
बानर भालु सकल हरषाने । गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ॥ १ ॥
श्री रामचंद्रजी के वचन सुनते ही विभीषणजी ने हर्षित होकर कृपा के धाम श्री रामजी के चरण पकड़ लिए । सभी वानर-भालू हर्षित हो गए और प्रभु के चरण पकड़कर उनके निर्मल गुणों का बखान करने लगे ॥ १ ॥
बहुरि विभीषन भवन सिधायो । मनि गन बसन बिमान भरायो ॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा । हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा ॥ २ ॥
फिर विभीषणजी महल को गए और उन्होंने मणियों के समूहों (रत्नों) से और वस्त्रों से विमान को भर लिया । फिर उस पुष्पक विमान को लाकर प्रभु के सामने रखा । तब कृपासागर श्री रामजी ने हँसकर कहा - ॥ २ ॥
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन । गगन जाइ बरषहु पट भूषन ॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही । बरषि दिए मनि अंबर सबही ॥ ३ ॥
हे सखा विभीषण! सुनो, विमान पर चढ़कर, आकाश में जाकर वस्त्रों और गहनों को बरसा दो । तब (आज्ञा सुनते) ही विभीषणजी ने आकाश में जाकर सब मणियों और वस्त्रों को बरसा दिया ॥ ३ ॥
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं । मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं ॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता । परम कौतुकी कृपा निकेता ॥ ४ ॥
जिसके मन को जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है । मणियों को मुँह में लेकर वानर फिर उन्हें खाने की चीज न समझकर उगल देते हैं । यह तमाशा देखकर परम विनोदी और कृपा के धाम श्री रामजी, सीताजी और लक्ष्मणजी सहित हँसने लगे ॥ ४ ॥