दोहा :
प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि ।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ॥ ११८ क ॥
परन्तु प्रभु की प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू श्री रामजी के रूप को हृदय में रखकर और अनेकों प्रकार से विनती करके हर्ष और विषाद सहित घर को चले ॥ ११८ (क) ॥
कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान ।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ॥ ११८ ख ॥
वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान्, अंगद, नल और हनुमान् तथा विभीषण सहित और जो बलवान् वानर सेनापति हैं, ॥ ११८ (ख) ॥
कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि ॥
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि ॥ ११८ ग ॥
वे कुछ कह नहीं सकते, प्रेमवश नेत्रों में जल भर-भरकर, नेत्रों का पलक मारना छोड़कर (टकटकी लगाए) सम्मुख होकर श्री रामजी की ओर देख रहे हैं ॥ ११८ (ग) ॥
चौपाई :
अतिसय प्रीति देखि रघुराई । लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई ॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो । उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ॥ १ ॥
श्री रघुनाथजी ने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा लिया । तदनन्तर मन ही मन विप्रचरणों में सिर नवाकर उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया ॥ १ ॥
चलत बिमान कोलाहल होई । जय रघुबीर कहइ सबु कोई ॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर । श्री समेत प्रभु बैठे ता पर ॥ २ ॥
विमान के चलते समय बड़ा शोर हो रहा है । सब कोई श्री रघुवीर की जय कह रहे हैं । विमान में एक अत्यंत ऊँचा मनोहर सिंहासन है । उस पर सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी विराजमान हो गए ॥ २ ॥
राजत रामु सहित भामिनी । मेरु सृंग जनु घन दामिनी ॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर । कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर ॥ ३ ॥
पत्नी सहित श्री रामजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरु के शिखर पर बिजली सहित श्याम मेघ हो । सुंदर विमान बड़ी शीघ्रता से चला । देवता हर्षित हुए और उन्होंने फूलों की वर्षा की ॥ ३ ॥
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी । सागर सर सरि निर्मल बारी ॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा । मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा ॥ ४ ॥
अत्यंत सुख देने वाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) वायु चलने लगी । समुद्र, तालाब और नदियों का जल निर्मल हो गया । चारों ओर सुंदर शकुन होने लगे । सबके मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं ॥ ४ ॥
कह रघुबीर देखु रन सीता । लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता ॥
हनूमान अंगद के मारे । रन महि परे निसाचर भारे ॥ ५ ॥
श्री रघुवीरजी ने कहा - हे सीते! रणभूमि देखो । लक्ष्मण ने यहाँ इंद्र को जीतने वाले मेघनाद को मारा था । हनुमान् और अंगद के मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमि में पड़े हैं ॥ ५ ॥
कुंभकरन रावन द्वौ भाई । इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई ॥ ६ ॥
देवताओं और मुनियों को दुःख देने वाले कुंभकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गए ॥ ६ ॥
दोहा :
इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम ।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम ॥ ११९ क ॥
मैंने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम श्री शिवजी की स्थापना की । तदनन्तर कृपानिधान श्री रामजी ने सीताजी सहित श्री रामेश्वर महादेव को प्रणाम किया ॥ ११९ (क) ॥
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम ।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम ॥ ११९ ख ॥
वन में जहाँ-तहाँ करुणा सागर श्री रामचंद्रजी ने निवास और विश्राम किया था, वे सब स्थान प्रभु ने जानकीजी को दिखलाए और सबके नाम बतलाए ॥ ११९ (ख) ॥
चौपाई :
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा । दंडक बन जहँ परम सुहावा ॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना । गए रामु सब कें अस्थाना ॥ १ ॥
विमान शीघ्र ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दण्डकवन था और अगस्त्य आदि बहुत से मुनिराज रहते थे । श्री रामजी इन सबके स्थानों में गए ॥ १ ॥
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा । चित्रकूट आए जगदीसा ॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा । चला बिमानु तहाँ ते चोखा ॥ २ ॥
संपूर्ण ऋषियों से आशीर्वाद पाकर जगदीश्वर श्री रामजी चित्रकूट आए । वहाँ मुनियों को संतुष्ट किया । (फिर) विमान वहाँ से आगे तेजी के साथ चला ॥ २ ॥
बहुरि राम जानकिहि देखाई । जमुना कलि मल हरनि सुहाई ॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता । राम कहा प्रनाम करु सीता ॥ ३ ॥
फिर श्री रामजी ने जानकीजी को कलियुग के पापों का हरण करने वाली सुहावनी यमुनाजी के दर्शन कराए । फिर पवित्र गंगाजी के दर्शन किए । श्री रामजी ने कहा - हे सीते! इन्हें प्रणाम करो ॥ ३ ॥
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा । निरखत जन्म कोटि अघ भागा ॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी । हरनि सोक हरि लोक निसेनी ॥ ४ ॥
पुनि देखु अवधपुरि अति पावनि । त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि ॥ ५ ॥
फिर तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोड़ों जन्मों के पाप भाग जाते हैं । फिर परम पवित्र त्रिवेणीजी के दर्शन करो, जो शोकों को हरने वाली और श्री हरि के परम धाम (पहुँचने) के लिए सीढ़ी के समान है । फिर अत्यंत पवित्र अयोध्यापुरी के दर्शन करो, जो तीनों प्रकार के तापों और भव (आवागमन रूपी) रोग का नाश करने वाली है ॥ ४-५ ॥
दोहा :
सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम ।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम ॥ १२० क ॥
यों कहकर कृपालु श्री रामजी ने सीताजी सहित अवधपुरी को प्रणाम किया । सजल नेत्र और पुलकित शरीर होकर श्री रामजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं ॥ १२० (क) ॥
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह ।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह ॥ १२० ख ॥
फिर त्रिवेणी में आकर प्रभु ने हर्षित होकर स्नान किया और वानरों सहित ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए ॥ १२० (ख) ॥
चौपाई :
प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई । धरि बटु रूप अवधपुर जाई ॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु । समाचार लै तुम्ह चलि आएहु ॥ १ ॥
तदनन्तर प्रभु ने हनुमान् जी को समझाकर कहा - तुम ब्रह्मचारी का रूप धरकर अवधपुरी को जाओ । भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना ॥ १ ॥
तुरत पवनसुत गवनत भयऊ । तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही । अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही ॥ २ ॥
पवनपुत्र हनुमान् जी तुरंत ही चल दिए । तब प्रभु भरद्वाजजी के पास गए । मुनि ने (इष्ट बुद्धि से) उनकी अनेकों प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर (लीला की दृष्टि से) आशीर्वाद दिया ॥ २ ॥
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी । चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी ॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए । नाव नाव कहँ लोग बोलाए ॥ ३ ॥
दोनों हाथ जोड़कर तथा मुनि के चरणों की वंदना करके प्रभु विमान पर चढ़कर फिर (आगे) चले । यहाँ जब निषादराज ने सुना कि प्रभु आ गए, तब उसने ‘नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?’ पुकारते हुए लोगों को बुलाया ॥ ३ ॥
सुरसरि नाघि जान तब आयो । उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो ॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी । बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी ॥ ४ ॥
इतने में ही विमान गंगाजी को लाँघकर (इस पार) आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह किनारे पर उतरा । तब सीताजी बहुत प्रकार से गंगाजी की पूजा करके फिर उनके चरणों पर गिरीं ॥ ४ ॥
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा । सुंदरि तव अहिवात अभंगा ॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल । आयउ निकट परम सुख संकुल ॥ ५ ॥
गंगाजी ने मन में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया- हे सुंदरी! तुम्हारा सुहाग अखंड हो । भगवान् के तट पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेम में विह्वल होकर दौड़ा । परम सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया, ॥ ५ ॥
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही । परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई । हरषि उठाइ लियो उर लाई ॥ ६ ॥
और श्री जानकीजी सहित प्रभु को देखकर वह (आनंद-समाधि में मग्न होकर) पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे शरीर की सुधि न रही । श्री रघुनाथजी ने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्ष के साथ हृदय से लगा लिया ॥ ६ ॥
छंद :
लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति ।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती ॥
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे ।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते ॥ १ ॥
सुजानों के राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकांत, कृपानिधान भगवान् ने उसको हृदय से लगा लिया और अत्यंत निकट बैठकर कुशल पूछी । वह विनती करने लगा- आपके जो चरणकमल ब्रह्माजी और शंकरजी से सेवित हैं, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूँ । हे सुखधाम! हे पूर्णकाम श्री रामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो ।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो ॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा ।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा ॥ २ ॥
सब प्रकार से नीच उस निषाद को भगवान् ने भरतजी की भाँति हृदय से लगा लिया । तुलसीदासजी कहते हैं - इस मंदबुद्धि ने (मैंने) मोहवश उस प्रभु को भुला दिया । रावण के शत्रु का यह पवित्र करने वाला चरित्र सदा ही श्री रामजी के चरणों में प्रीति उत्पन्न करने वाला है । यह कामादि विकारों को हरने वाला और (भगवान् के स्वरूप का) विशेष ज्ञान उत्पन्न करने वाला है । देवता, सिद्ध और मुनि आनंदित होकर इसे गाते हैं ॥ २ ॥
दोहा :
समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान ।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥ १२१ क ॥
जो सुजान लोग श्री रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान् नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं ॥ १२१ (क) ॥
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार ।
श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार ॥ १२१ ख ॥
अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है । इसमें श्री रघुनाथजी के नाम को छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है ॥ १२१ (ख) ॥