चौपाई :
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन । आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥
नाथ भूधराकार सरीरा । कुंभकरन आवत रनधीरा ॥ १ ॥ ॥
भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए, जहाँ त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे । (विभीषण ने कहा - ) हे नाथ! पर्वत के समान (विशाल) देह वाला रणधीर कुंभकर्ण आ रहा है ॥ १ ॥
एतना कपिन्ह सुना जब काना । किलकिलाइ धाए बलवाना ॥
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर । कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥ २ ॥
वानरों ने जब कानों से इतना सुना, तब वे बलवान् किलकिलाकर (हर्षध्वनि करके) दौड़े । वृक्ष और पर्वत (उखाड़कर) उठा लिए और (क्रोध से) दाँत कटकटाकर उन्हें उसके ऊपर डालने लगे ॥ २ ॥
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा । करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥
मुर्यो न मनु तनु टर्यो न टार्यो । जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो ॥ ३ ॥
रीछ-वानर एक-एक बार में ही करोड़ों पहाड़ों के शिखरों से उस पर प्रहार करते हैं, परन्तु इससे न तो उसका मन ही मुड़ा (विचलित हुआ) और न शरीर ही टाले टला, जैसे मदार के फलों की मार से हाथी पर कुछ भी असर नहीं होता! ॥ ३ ॥
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो । परयो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता । घुर्मित भूतल परेउ तुरंता ॥ ४ ॥
तब हनुमान् जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और सिर पीटने लगा । फिर उसने उठकर हनुमान् जी को मारा । वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ ४ ॥
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि । जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥
चली बलीमुख सेन पराई । अति भय त्रसित न कोउ समुहाई ॥ ५ ॥
फिर उसने नल-नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहाँ-तहाँ पटककर डाल दिया । वानर सेना भाग चली । सब अत्यंत भयभीत हो गए, कोई सामने नहीं आता ॥ ५ ॥
दोहा :
अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव ।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥ ६५ ॥
सुग्रीव समेत अंगदादि वानरों को मूर्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुंभकर्ण वानरराज सुग्रीव को काँख में दाबकर चला ॥ ६५ ॥
चौपाई :
उमा करत रघुपति नरलीला । खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला ॥
भृकुटि भंग जो कालहि खाई । ताहि कि सोहइ ऐसि लराई ॥ १ ॥
(शिवजी कहते हैं - ) हे उमा! श्री रघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो । जो भौंह के इशारे मात्र से (बिना परिश्रम के) काल को भी खा जाता है, उसे कहीं ऐसी लड़ाई शोभा देती है? ॥ १ ॥
जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं । गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं ॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा । सुग्रीवहि तब खोजन लागा ॥ २ ॥
भगवान् (इसके द्वारा) जगत् को पवित्र करने वाली वह कीर्ति फैलाएँगे, जिसे गा-गाकर मनुष्य भवसागर से तर जाएँगे । मूर्च्छा जाती रही, तब मारुति हनुमान् जी जागे और फिर वे सुग्रीव को खोजने लगे ॥ २ ॥
सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती । निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती ॥
काटेसि दसन नासिका काना । गरजि अकास चलेउ तेहिं जाना ॥ ३ ॥
सुग्रीव की भी मूर्च्छा दूर हुई, तब वे (मुर्दे से होकर) खिसक गए (काँख से नीचे गिर पड़े) । कुम्भकर्ण ने उनको मृतक जाना । उन्होंने कुम्भकर्ण के नाक-कान दाँतों से काट लिए और फिर गरज कर आकाश की ओर चले, तब कुम्भकर्ण ने जाना ॥ ३ ॥
गहेउ चरन गहि भूमि पछारा । अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा ॥
पुनि आयउ प्रभु पहिं बलवाना । जयति जयति जय कृपानिधाना ॥ ४ ॥
उसने सुग्रीव का पैर पकड़कर उनको पृथ्वी पर पछाड़ दिया । फिर सुग्रीव ने बड़ी फुर्ती से उठकर उसको मारा और तब बलवान् सुग्रीव प्रभु के पास आए और बोले - कृपानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो ॥ ४ ॥
नाक कान काटे जियँ जानी । फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी ॥
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा । देखत कपि दल उपजी त्रासा ॥ ५ ॥
नाक-कान काटे गए, ऐसा मन में जानकर बड़ी ग्लानि हुई और वह क्रोध करके लौटा । एक तो वह स्वभाव (आकृति) से ही भयंकर था और फिर बिना नाक-कान का होने से और भी भयानक हो गया । उसे देखते ही वानरों की सेना में भय उत्पन्न हो गया ॥ ५ ॥
दोहा :
जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह ।
एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह ॥ ६६ ॥
‘रघुवंशमणि की जय हो, जय हो’ ऐसा पुकारकर वानर हूह करके दौड़े और सबने एक ही साथ उस पर पहाड़ और वृक्षों के समूह छोड़े ॥ ६६ ॥
चौपाई :
कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा । सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा ॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई । जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई ॥ १ ॥
रण के उत्साह में कुंभकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो । वह करोड़-करोड़ वानरों को एक साथ पकड़कर खाने लगा! (वे उसके मुँह में इस तरह घुसने लगे) मानो पर्वत की गुफा में टिड्डियाँ समा रही हों ॥ १ ॥
कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा । कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ॥
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा । निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ॥ २ ॥
करोड़ों (वानरों) को पकड़कर उसने शरीर से मसल डाला । करोड़ों को हाथों से मलकर पृथ्वी की धूल में मिला दिया । (पेट में गए हुए) भालू और वानरों के ठट्ट के ठट्ट उसके मुख, नाक और कानों की राह से निकल-निकलकर भाग रहे हैं ॥ २ ॥
रन मद मत्त निसाचर दर्पा । बिस्व ग्रसिहि जनु ऐहि बिधि अर्पा ॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे । सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे ॥ ३ ॥
रण के मद में मत्त राक्षस कुंभकर्ण इस प्रकार गर्वित हुआ, मानो विधाता ने उसको सारा विश्व अर्पण कर दिया हो और उसे वह ग्रास कर जाएगा । सब योद्धा भाग खड़े हुए, वे लौटाए भी नहीं लौटते । आँखों से उन्हें सूझ नहीं पड़ता और पुकारने से सुनते नहीं! ॥ ३ ॥
कुंभकरन कपि फौज बिडारी । सुनि धाई रजनीचर धारी ॥
देखी राम बिकल कटकाई । रिपु अनीक नाना बिधि आई ॥ ४ ॥
कुंभकर्ण ने वानर सेना को तितर-बितर कर दिया । यह सुनकर राक्षस सेना भी दौड़ी । श्री रामचंद्रजी ने देखा कि अपनी सेना व्याकुल है और शत्रु की नाना प्रकार की सेना आ गई है ॥ ४ ॥
दोहा :
सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन ।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन ॥ ६७ ॥
तब कमलनयन श्री रामजी बोले - हे सुग्रीव! हे विभीषण! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को संभालना । मैं इस दुष्ट के बल और सेना को देखता हूँ ॥ ६७ ॥
चौपाई :
कर सारंग साजि कटि भाथा । अरि दल दलन चले रघुनाथा ॥
प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टंकोरा । रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा ॥ १ ॥
हाथ में शार्ङ्ग धनुष और कमर में तरकस सजाकर श्री रघुनाथजी शत्रु सेना को दलन करने चले । प्रभु ने पहले तो धनुष का टंकार किया, जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रु दल बहरा हो गया ॥ १ ॥
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा । कालसर्प जनु चले सपच्छा ॥
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा । लगे कटन भट बिकट पिसाचा ॥ २ ॥
फिर सत्यप्रतिज्ञ श्री रामजी ने एक लाख बाण छोड़े । वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सर्प चले हों । जहाँ-तहाँ बहुत से बाण चले, जिनसे भयंकर राक्षस योद्धा कटने लगे ॥ २ ॥
कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा । बहुतक बीर होहिं सत खंडा ॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं । उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं ॥ ३ ॥
उनके चरण, छाती, सिर और भुजदण्ड कट रहे हैं । बहुत से वीरों के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं । घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वी पर पड़ रहे हैं । उत्तम योद्धा फिर संभलकर उठते और लड़ते हैं ॥ ३ ॥
लागत बान जलद जिमि गाजहिं । बहुतक देखि कठिन सर भाजहिं ॥
रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं । धरु धरु मारु मारु धुनि गावहिं ॥ ४ ॥
बाण लगते ही वे मेघ की तरह गरजते हैं । बहुत से तो कठिन बाणों को देखकर ही भाग जाते हैं । बिना मुण्ड (सिर) के प्रचण्ड रुण्ड (धड़) दौड़ रहे हैं और ‘पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो’ का शब्द करते हुए गा (चिल्ला) रहे हैं ॥ ४ ॥
दोहा :
छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच ।
पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच ॥ ६८ ॥
प्रभु के बाणों ने क्षण मात्र में भयानक राक्षसों को काटकर रख दिया । फिर वे सब बाण लौटकर श्री रघुनाथजी के तरकस में घुस गए ॥ ६८ ॥
चौपाई :
कुंभकरन मन दीख बिचारी । हति छन माझ निसाचर धारी ॥
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा । कियो मृगनायक नाद गँभीरा ॥ १ ॥
कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्री रामजी ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला । तब वह महाबली वीर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने गंभीर सिंहनाद किया ॥ १ ॥
कोपि महीधर लेइ उपारी । डारइ जहँ मर्कट भट भारी ॥
आवत देखि सैल प्रभु भारे । सरन्हि काटि रज सम करि डारे ॥ २ ॥
वह क्रोध करके पर्वत उखाड़ लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर योद्धा होते हैं, वहाँ डाल देता है । बड़े-बड़े पर्वतों को आते देखकर प्रभु ने उनको बाणों से काटकर धूल के समान (चूर-चूर) कर डाला ॥ २ ॥
पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक । छाँड़े अति कराल बहु सायक ॥
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं । जिमि दामिनि घन माझ समाहीं ॥ ३ ॥
फिर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत से अत्यंत भयानक बाण छोड़े । वे बाण कुंभकर्ण के शरीर में घुसकर (पीछे से इस प्रकार) निकल जाते हैं (कि उनका पता नहीं चलता), जैसे बिजलियाँ बादल में समा जाती हैं ॥ ३ ॥
सोनित स्रवत सोह तन कारे । जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे ॥
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए । बिहँसा जबहिं निकट कपि आए ॥ ४ ॥
उसके काले शरीर से रुधिर बहता हुआ ऐसे शोभा देता है, मानो काजल के पर्वत से गेरु के पनाले बह रहे हों । उसे व्याकुल देखकर रीछ वानर दौड़े । वे ज्यों ही निकट आए, त्यों ही वह हँसा, ॥ ४ ॥
दोहा :
महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस ।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस ॥ ६९ ॥
और बड़ा घोर शब्द करके गरजा तथा करोड़-करोड़ वानरों को पकड़कर वह गजराज की तरह उन्हें पृथ्वी पर पटकने लगा और रावण की दुहाई देने लगा ॥ ६९ ॥
चौपाई :
भागे भालु बलीमुख जूथा । बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा ॥
चले भागि कपि भालु भवानी । बिकल पुकारत आरत बानी ॥ १ ॥
यह देखकर रीछ-वानरों के झुंड ऐसे भागे जैसे भेड़िये को देखकर भेड़ों के झुंड! (शिवजी कहते हैं - ) हे भवानी! वानर-भालू व्याकुल होकर आर्तवाणी से पुकारते हुए भाग चले ॥ १ ॥
यह निसिचर दुकाल सम अहई । कपिकुल देस परन अब चहई ॥
कृपा बारिधर राम खरारी । पाहि पाहि प्रनतारति हारी ॥ २ ॥
(वे कहने लगे-) यह राक्षस दुर्भिक्ष के समान है, जो अब वानर कुल रूपी देश में पड़ना चाहता है । हे कृपा रूपी जल के धारण करने वाले मेघ रूप श्री राम! हे खर के शत्रु! हे शरणागत के दुःख हरने वाले! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए! ॥ २ ॥ ।
सकरुन बचन सुनत भगवाना । चले सुधारि सरासन बाना ॥
राम सेन निज पाछें घाली । चले सकोप महा बलसाली ॥ ३ ॥
करुणा भरे वचन सुनते ही भगवान् धनुष-बाण सुधारकर चले । महाबलशाली श्री रामजी ने सेना को अपने पीछे कर लिया और वे (अकेले) क्रोधपूर्वक चले (आगे बढ़े) ॥ ३ ॥
खैंचि धनुष सर सत संधाने । छूटे तीर सरीर समाने ॥
लागत सर धावा रिस भरा । कुधर डगमगत डोलति धरा ॥ ४ ॥
उन्होंने धनुष को खींचकर सौ बाण संधान किए । बाण छूटे और उसके शरीर में समा गए । बाणों के लगते ही वह क्रोध में भरकर दौड़ा । उसके दौड़ने से पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी ॥ ४ ॥
लीन्ह एक तेंहि सैल उपाटी । रघुकुलतिलक भुजा सोइ काटी ॥
धावा बाम बाहु गिरि धारी । प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी ॥ ५ ॥
उसने एक पर्वत उखाड़ लिया । रघुकुल तिलक श्री रामजी ने उसकी वह भुजा ही काट दी । तब वह बाएँ हाथ में पर्वत को लेकर दौड़ा । प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी ॥ ५ ॥
काटें भुजा सोह खल कैसा । पच्छहीन मंदर गिरि जैसा ॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका । ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका ॥ ६ ॥
भुजाओं के कट जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पंख का मंदराचल पहाड़ हो । उसने उग्र दृष्टि से प्रभु को देखा । मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो ॥ ६ ॥
दोहा :
करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि ।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि ॥ ७० ॥
वह बड़े जोर से चिंघाड़ करके मुँह फैलाकर दौड़ा । आकाश में सिद्ध और देवता डरकर हा! हा! हा! इस प्रकार पुकारने लगे ॥ ७० ॥
चौपाई :
सभय देव करुनानिधि जान्यो । श्रवन प्रजंत सरासुन तान्यो ॥
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ । तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥ १ ॥
करुणानिधान भगवान् ने देवताओं को भयभीत जाना । तब उन्होंने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों के समूह से भर दिया । तो भी वह महाबली पृथ्वी पर न गिरा ॥ १ ॥
सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा । काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा । धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥ २ ॥
मुख में बाण भरे हुए वह (प्रभु के) सामने दौड़ा । मानो काल रूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो । तब प्रभु ने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया ॥ २ ॥
सो सिर परेउ दसानन आगें । बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें ॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा । तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा ॥ ३ ॥
वह सिर रावण के आगे जा गिरा उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प । कुंभकर्ण का प्रचण्ड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धँसी जाती थी । तब प्रभु ने काटकर उसके दो टुकड़े कर दिए ॥ ३ ॥
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर । हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥
तासु तेज प्रभु बदन समाना । सुर मुनि सबहिं अचंभव माना ॥ ४ ॥
वानर-भालू और निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकड़े पृथ्वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश से दो पहाड़ गिरे हों । उसका तेज प्रभु श्री रामचंद्रजी के मुख में समा गया । (यह देखकर) देवता और मुनि सभी ने आश्चर्य माना ॥ ४ ॥
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं । अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं ॥
करि बिनती सुर सकल सिधाए । तेही समय देवरिषि आए ॥ ५ ॥
देवता नगाड़े बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत से फूल बरसा रहे हैं । विनती करके सब देवता चले गए । उसी समय देवर्षि नारद आए ॥ ५ ॥
गगनोपरि हरि गुन गन गाए । रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए । राम समर महि सोभत भए ॥ ६ ॥
आकाश के ऊपर से उन्होंने श्री हरि के सुंदर वीर रसयुक्त गुण समूह का गान किया, जो प्रभु के मन को बहुत ही भाया । मुनि यह कहकर चले गए कि अब दुष्ट रावण को शीघ्र मारिए । (उस समय) श्री रामचंद्रजी रणभूमि में आकर (अत्यंत) सुशोभित हुए ॥ ६ ॥
छंद :
संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी ।
श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने ।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ॥
अतुलनीय बल वाले कोसलपति श्री रघुनाथजी रणभूमि में सुशोभित हैं । मुख पर पसीने की बूँदें हैं, कमल समान नेत्र कुछ लाल हो रहे हैं । शरीर पर रक्त के कण हैं, दोनों हाथों से धनुष-बाण फिरा रहे हैं । चारों ओर रीछ-वानर सुशोभित हैं । तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु की इस छबि का वर्णन शेषजी भी नहीं कर सकते, जिनके बहुत से (हजार) मुख हैं ।
दोहा :
निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम ।
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम ॥ ७१ ॥
(शिवजी कहते हैं - ) हे गिरिजे! कुंभकर्ण, जो नीच राक्षस और पाप की खान था, उसे भी श्री रामजी ने अपना परमधाम दे दिया । अतः वे मनुष्य (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं, जो उन श्री रामजी को नहीं भजते ॥ ७१ ॥
चौपाई :
दिन के अंत फिरीं द्वौ अनी । समर भई सुभटन्ह श्रम घनी ॥
राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा । जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा ॥ १ ॥
दिन का अन्त होने पर दोनों सेनाएँ लौट पड़ीं । (आज के युद्ध में) योद्धाओं को बड़ी थकावट हुई, परन्तु श्री रामजी की कृपा से वानर सेना का बल उसी प्रकार बढ़ गया, जैसे घास पाकर अग्नि बहुत बढ़ जाती है ॥ १ ॥ (घ) ॥
छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती । निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥
बहु बिलाप दसकंधर करई । बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई ॥ २ ॥
उधर राक्षस दिन-रात इस प्रकार घटते जा रहे हैं, जिस प्रकार अपने ही मुख से कहने पर पुण्य घट जाते हैं । रावण बहुत विलाप कर रहा है । बार-बार भाई (कुंभकर्ण) का सिर कलेजे से लगाता है ॥ २ ॥
रोवहिं नारि हृदय हति पानी । तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ । कहि बहु कथा पिता समुझायउ ॥ ३ ॥
स्त्रियाँ उसके बड़े भारी तेज और बल को बखान करके हाथों से छाती पीट-पीटकर रो रही हैं । उसी समय मेघनाद आया और उसने बहुत सी कथाएँ कहकर पिता को समझाया ॥ ३ ॥
देखेहु कालि मोरि मनुसाई । अबहिं बहुत का करौं बड़ाई ॥
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ । सो बल तात न तोहि देखायउँ ॥ ४ ॥
(और कहा - ) कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा । अभी बहुत बड़ाई क्या करूँ? हे तात! मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था, वह बल (और रथ) अब तक आपको नहीं दिखलाया था ॥ ४ ॥
एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना । चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥
इति कपि भालु काल सम बीरा । उत रजनीचर अति रनधीरा ॥ ५ ॥
इस प्रकार डींग मारते हुए सबेरा हो गया । लंका के चारों दरवाजों पर बहुत से वानर आ डटे । इधर काल के समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यंत रणधीर राक्षस ॥ ५ ॥
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू । बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥ ६ ॥
दोनों ओर के योद्धा अपनी-अपनी जय के लिए लड़ रहे हैं । हे गरुड़ उनके युद्ध का वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ६ ॥