दोहा :
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान ।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥ ६२ ॥
तब रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है? ॥ ६२ ॥
चौपाई :
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा । अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना । भजहु राम होइहि कल्याना ॥ १ ॥
हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया । अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा ॥ १ ॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक । जाके हनूमान से पायक ॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई । प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥ २ ॥
हे रावण! जिनके हनुमान् सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया ॥ २ ॥
कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक । सिव बिरंचि सुर जाके सेवक ॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा । कहतेउँ तोहि समय निरबाहा ॥ ३ ॥
हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं । नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा ॥ ३ ॥
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई । लोचन सुफल करौं मैं जाई ॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन । देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥ ४ ॥
हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले । मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ । तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ ॥ ४ ॥
दोहा :
राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक ।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥ ६३ ॥
श्री रामचंद्रजी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया । फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए ॥ ६३ ॥
चौपाई :
महिषखाइ करि मदिरा पाना । गर्जा बज्राघात समाना ॥
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा । चला दुर्ग तजि सेन न संगा ॥ १ ॥
भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा । मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चला । सेना भी साथ नहीं ली ॥ १ ॥
देखि बिभीषनु आगें आयउ । परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो । रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥ २ ॥
उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया । छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे ॥ २ ॥
तात लात रावन मोहि मारा । कहत परम हित मंत्र बिचारा ॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ । देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ॥ ३ ॥
(विभीषण ने कहा - ) हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी । उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया । दीन देखकर प्रभु के मन को मैं (बहुत) प्रिय लगा ॥ ३ ॥
सुनु भयउ कालबस रावन । सो कि मान अब परम सिखावन ॥
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन । भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥ ४ ॥
(कुंभकर्ण ने कहा - ) हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है) । वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है । हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया ॥ ४ ॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर । भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥ ५ ॥
हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा ॥ ५ ॥
दोहा :
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर ।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर ॥ ६४ ॥
मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना । हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ ॥ ६४ ॥