दोहा :
मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास ।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास ॥ ७२ ॥
मेघनाद उसी (पूर्वोक्त) मायामय रथ पर चढ़कर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया ॥ ७२ ॥
चौपाई :
सक्ति सूल तरवारि कृपाना । अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥
डारइ परसु परिघ पाषाना । लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥ १ ॥
वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र-शस्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत से बाणों की वृष्टि करने लगा ॥ १ ॥
दस दिसि रहे बान नभ छाई । मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना । जो मारइ तेहि कोउ न जाना ॥ २ ॥
आकाश में दसों दिशाओं में बाण छा गए, मानो माघ नक्षत्र के बादलों ने झड़ी लगा दी हो । ‘पकड़ो, पकड़ो, मारो’ ये शब्द सुनाई पड़ते हैं । पर जो मार रहा है, उसे कोई नहीं जान पाता ॥ २ ॥
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं । देखहिं तेहि न दुखित फिरि आवहिं ॥
अवघट घाट बाट गिरि कंदर । माया बल कीन्हेसि सर पंजर ॥ ३ ॥
पर्वत और वृक्षों को लेकर वानर आकाश में दौड़कर जाते हैं । पर उसे देख नहीं पाते, इससे दुःखी होकर लौट आते हैं । मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वतों-कन्दराओं को बाणों के पिंजरे बना दिए (बाणों से छा दिया) ॥ ३ ॥
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर । सुरपति बंदि परे जनु मंदर ॥
मारुतसुत अंगद नल नीला । कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥ ४ ॥
अब कहाँ जाएँ, यह सोचकर (रास्ता न पाकर) वानर व्याकुल हो गए । मानो पर्वत इंद्र की कैद में पड़े हों । मेघनाद ने मारुति हनुमान्, अंगद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया ॥ ४ ॥
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन । सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥
पुनि रघुपति सैं जूझै लागा । सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥ ५ ॥
फिर उसने लक्ष्मणजी, सुग्रीव और विभीषण को बाणों से मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया । फिर वह श्री रघुनाथजी से लड़ने लगा । वह जो बाण छोड़ता है, वे साँप होकर लगते हैं ॥ ५ ॥
ब्याल पास बस भए खरारी । स्वबस अनंत एक अबिकारी ॥
नट इव कपट चरित कर नाना । सदा स्वतंत्र एक भगवाना ॥ ६ ॥
जो स्वतंत्र, अनन्त, एक (अखंड) और निर्विकार हैं, वे खर के शत्रु श्री रामजी (लीला से) नागपाश के वश में हो गए (उससे बँध गए) श्री रामचंद्रजी सदा स्वतंत्र, एक, (अद्वितीय) भगवान् हैं । वे नट की तरह अनेकों प्रकार के दिखावटी चरित्र करते हैं ॥ ६ ॥
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो । नागपास देवन्ह भय पायो ॥ ७ ॥
रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बंधा लिया, किन्तु उससे देवताओं को बड़ा भय हुआ ॥ ७ ॥
दोहा :
गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास ।
सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास ॥ ७३ ॥
(शिवजी कहते हैं - ) हे गिरिजे! जिनका नाम जपकर मुनि भव (जन्म-मृत्यु) की फाँसी को काट डालते हैं, वे सर्वव्यापक और विश्व निवास (विश्व के आधार) प्रभु कहीं बंधन में आ सकते हैं? ॥ ७३ ॥
चौपाई :
चरित राम के सगुन भवानी । तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी । रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥ १ ॥
हे भवानी! श्री रामजी की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया जा सकता । ऐसा विचार कर जो तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुष हैं, वे सब तर्क (शंका) छोड़कर श्री रामजी का भजन ही करते हैं ॥ । १ ॥
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा । पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा ॥
जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा । सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा ॥ २ ॥
मेघनाद ने सेना को व्याकुल कर दिया । फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा । इस पर जाम्बवान् ने कहा - अरे दुष्ट! खड़ा रह । यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध बढ़ा ॥ २ ॥
बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही । लागेसि अधम पचारै मोही ॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो । जामवंत कर गहि सोइ धायो ॥ ३ ॥
अरे मूर्ख! मैंने बूढ़ा जानकर तुझको छोड़ दिया था । अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है? ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया । जाम्बवान् उसी त्रिशूल को हाथ से पकड़कर दौड़ा ॥ ३ ॥
मारिसि मेघनाद कै छाती । परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायो । महि पछारि निज बल देखरायो ॥ ४ ॥
और उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा । वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा । जाम्बवान् ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल दिखलाया ॥ ४ ॥
बर प्रसाद सो मरइ न मारा । तब गहि पद लंका पर डारा ॥
इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो । राम समीप सपदि सो आयो ॥ ५ ॥
(किन्तु) वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता । तब जाम्बवान् ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका पर फेंक दिया । इधर देवर्षि नारदजी ने गरुड़ को भेजा । वे तुरंत ही श्री रामजी के पास आ पहुँचे ॥ ५ ॥
दोहा :
खगपति सब धरि खाए माया नाग बरुथ ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ ॥ ७४ क ॥
पक्षीराज गरुड़जी सब माया-सर्पों के समूहों को पकड़कर खा गए । तब सब वानरों के झुंड माया से रहित होकर हर्षित हुए ॥ ७४ (क) ॥
गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ ।
चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ ॥ ७४ ख ॥
पर्वत, वृक्ष, पत्थर और नख धारण किए वानर क्रोधित होकर दौड़े । निशाचर विशेष व्याकुल होकर भाग चले और भागकर किले पर चढ़ गए ॥ ७४ (ख) ॥