दोहा :
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥ १७ ॥
हनुमान् जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा - जाओ । हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ ॥ १७ ॥
चौपाई :
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तोरैं लागा ॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥ १ ॥
वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए । फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे । वहाँ बहुत से योद्धा रखवाले थे । उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की- ॥ १ ॥
नाथ एक आवा कपि भारी । तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥ २ ॥
(और कहा - ) हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है । उसने अशोक वाटिका उजाड़ डाली । फल खाए, वृक्षों को उखाड़ डाला और रखवालों को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया ॥ २ ॥
सुनि रावन पठए भट नाना । तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥
सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥ ३ ॥
यह सुनकर रावण ने बहुत से योद्धा भेजे । उन्हें देखकर हनुमान् जी ने गर्जना की । हनुमान् जी ने सब राक्षसों को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गए ॥ ३ ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥ ४ ॥
फिर रावण ने अक्षयकुमार को भेजा । वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर चला । उसे आते देखकर हनुमान् जी ने एक वृक्ष (हाथ में) लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्वनि (बड़े जोर) से गर्जना की ॥ ४ ॥
दोहा :
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि ।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ १८ ॥
उन्होंने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया । कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान् है ॥ १८ ॥
चौपाई :
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥ १ ॥
पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान् मेघनाद को भेजा । (उससे कहा कि - ) हे पुत्र! मारना नहीं उसे बाँध लाना । उस बंदर को देखा जाए कि कहाँ का है ॥ १ ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥
कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥ २ ॥
इंद्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला । भाई का मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया । हनुमान् जी ने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है । तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े ॥ ३ ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा । बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा ॥ ३ ॥
उन्होंने एक बहुत बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया और (उसके प्रहार से) लंकेश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया । (रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक दिया) । उसके साथ जो बड़े-बड़े योद्धा थे, उनको पकड़-पकड़कर हनुमान् जी अपने शरीर से मसलने लगे ॥ ३ ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ॥ ४ ॥
उन सबको मारकर फिर मेघनाद से लड़ने लगे । (लड़ते हुए वे ऐसे मालूम होते थे) मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गए हों । हनुमान् जी उसे एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े । उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गई ॥ ४ ॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥ ५ ॥
फिर उठकर उसने बहुत माया रची, परंतु पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते ॥ ५ ॥
दोहा :
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९ ॥
अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का संधान (प्रयोग) किया, तब हनुमान् जी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी ॥ १९ ॥
चौपाई :
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ । नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥ १ ॥
उसने हनुमान् जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े), परंतु गिरते समय भी उन्होंने बहुत सी सेना मार डाली । जब उसने देखा कि हनुमान् जी मूर्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया ॥ १ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा । प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥ २ ॥
(शिवजी कहते हैं - ) हे भवानी सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है? किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान् जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया ॥ २ ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥ ३ ॥
बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए । हनुमान् जी ने जाकर रावण की सभा देखी । उसकी अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती ॥ ३ ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥ ४ ॥
देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं । (उसका रुख देख रहे हैं) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान् जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ । वे ऐसे निःशंख खड़े रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड़ निःशंख निर्भय) रहते हैं ॥ ४ ॥