दोहा :
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद ॥ २० ॥
हनुमान् जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा । फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया ॥ २० ॥
चौपाई :
कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥ १ ॥
लंकापति रावण ने कहा - रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानों से नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यंत निःशंख देख रहा हूँ ॥ १ ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचति माया ॥ २ ॥
तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है? (हनुमान् जी ने कहा - ) हे रावण! सुन, जिनका बल पाकर माया संपूर्ण ब्रह्मांडों के समूहों की रचना करती है, ॥ २ ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥ ३ ॥
जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्रमुख (फणों) वाले शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण करते हैं, ॥ ३ ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥ ४ ॥
जो देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया ॥ ४ ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ॥ ५ ॥
जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलवान् थे, ॥ ५ ॥
दोहा :
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥ २१ ॥
जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम (चोरी से) हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ ॥ २१ ॥
चौपाई :
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई । सहसबाहु सन परी लराई ॥
समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥ १ ॥
मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था । हनुमान् जी के (मार्मिक) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी ॥ १ ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा । कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥ २ ॥
हे (राक्षसों के) स्वामी मुझे भूख लगी थी, (इसलिए) मैंने फल खाए और वानर स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े । हे (निशाचरों के) मालिक! देह सबको परम प्रिय है । कुमार्ग पर चलने वाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे ॥ २
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥ ३ ॥
तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा । उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध लिया (किंतु), मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है । मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ ॥ ३ ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥ ४ ॥
हे रावण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो । तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भक्त भयहारी भगवान् को भजो ॥ ४ ॥
जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ॥ ५ ॥
जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो ॥ ५ ॥
दोहा :
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥ २२ ॥
खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं । शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे ॥ २२ ॥
चौपाई :
राम चरन पंकज उर धरहू । लंका अचल राजु तुम्ह करहू ॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥ १ ॥
तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो । ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्रमा के समान है । उस चंद्रमा में तुम कलंक न बनो ॥ १ ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषन भूषित बर नारी ॥ २ ॥
राम नाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोह को छोड़, विचारकर देखो । हे देवताओं के शत्रु! सब गहनों से सजी हुई सुंदरी स्त्री भी कपड़ों के बिना (नंगी) शोभा नहीं पाती ॥ २ ॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥ ३ ॥
रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है । जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है । (अर्थात् जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं ॥ ३ ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥ ४ ॥
हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है । हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते ॥ ४ ॥
दोहा :
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ २३ ॥
मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान् श्री रामचंद्रजी का भजन करो ॥ २३ ॥
चौपाई :
जदपि कही कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥
बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥ १ ॥
यद्यपि हनुमान् जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान् अभिमानी रावण बहुत हँसकर (व्यंग्य से) बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला! ॥ १ ॥
मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ॥
उलटा होइहि कह हनुमाना । मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥ २ ॥
रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गई है । अधम! मुझे शिक्षा देने चला है । हनुमान् जी ने कहा - इससे उलटा ही होगा (अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नहीं) । यह तेरा मतिभ्रम (बुद्धि का फेर) है, मैंने प्रत्यक्ष जान लिया है ॥ २ ॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥
सुनत निसाचर मारन धाए । सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ॥ ३ ॥
हनुमान् जी के वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया । (और बोला-) अरे! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौड़े उसी समय मंत्रियों के साथ विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे ॥ ३ ॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता । नीति बिरोध न मारिअ दूता ॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥ ४ ॥
उन्होंने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावण से कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए, यह नीति के विरुद्ध है । हे गोसाईं । कोई दूसरा दंड दिया जाए । सबने कहा - भाई! यह सलाह उत्तम है ॥ ४ ॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥ ५ ॥
यह सुनते ही रावण हँसकर बोला- अच्छा तो, बंदर को अंग-भंग करके भेज (लौटा) दिया जाए ॥ ५ ॥