सोरठा :
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब ।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥ १२ ॥
तब हनुमान् जी ने हदय में विचार कर (सीताजी के सामने) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया । (यह समझकर) सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया ॥ १२ ॥
चौपाई :
तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥ १ ॥
तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी । अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं ॥ १ ॥
जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ॥
सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥ २ ॥
(वे सोचने लगीं-) श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती । सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं । इसी समय हनुमान् जी मधुर वचन बोले - ॥ २ ॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥ ३ ॥
वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया । वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं । हनुमान् जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई ॥ ३ ॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कही सो प्रगट होति किन भाई ॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥ ४ ॥
(सीताजी बोलीं - ) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान् जी पास चले गए । उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ ॥ ४ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥ ५ ॥
(हनुमान् जी ने कहा - ) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ । करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ, हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ । श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है ॥ ५ ॥
नर बानरहि संग कहु कैसें । कही कथा भइ संगति जैसें ॥ ६ ॥
(सीताजी ने पूछा - ) नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही ॥ ६ ॥
दोहा :
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥
हनुमान् जी के प्रेमयुक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है ॥ १३ ॥
चौपाई :
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयहु तात मो कहुँ जलजाना ॥ १ ॥
भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई । नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया (सीताजी ने कहा - ) हे तात हनुमान्! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए ॥ १ ॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥
कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥ २ ॥
मैं बलिहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मंगल कहो । श्री रघुनाथजी तो कोमल हृदय और कृपालु हैं । फिर हे हनुमान्! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है? ॥ २ ॥
सहज बानि सेवक सुखदायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ॥ ३ ॥
सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है । वे श्री रघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँवले अंगों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे? ॥ ३ ॥
बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥ ४ ॥
(मुँह से) वचन नहीं निकलता, नेत्रों में (विरह के आँसुओं का) जल भर आया । (बड़े दुःख से वे बोलीं - ) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान् जी कोमल और विनीत वचन बोले - ॥ ४ ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥ ५ ॥
हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित (शरीर से) कुशल हैं, परंतु आपके दुःख से दुःखी हैं । हे माता! मन में ग्लानि न मानिए (मन छोटा करके दुःख न कीजिए) । श्री रामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है ॥ ५ ॥
दोहा :
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥ १४ ॥
हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का संदेश सुनिए । ऐसा कहकर हनुमान् जी प्रेम से गद्गद हो गए । उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया ॥ १४ ॥
चौपाई :
कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥ १ ॥
(हनुमान् जी बोले - ) श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं । वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान ॥ १ ॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥ २ ॥
और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं । मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं । जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं । त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गई है ॥ २ ॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥ ३ ॥
मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है । पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं । हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है ॥ ३ ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥ ४ ॥
और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है । बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले । प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं । उन्हें शरीर की सुध न रही ॥ ४ ॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥ ५ ॥
हनुमान् जी ने कहा - हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी का स्मरण करो । श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो ॥ ५ ॥
दोहा :
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥ १५ ॥
राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं । हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो ॥ १५ ॥
चौपाई :
जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥
राम बान रबि उएँ जानकी । तम बरुथ कहँ जातुधान की ॥ १ ॥
श्री रामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते । हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है? ॥ १ ॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई ॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥ २ ॥
हे माता! मैं आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ, पर श्री रामचंद्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है । (अतः) हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो । श्री रामचंद्रजी वानरों सहित यहाँ आएँगे ॥ २ ॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना ॥ ३ ॥
और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएँगे । नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएँगे । (सीताजी ने कहा - ) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें से) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान, योद्धा हैं ॥ ३ ॥
मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥
कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ॥ ४ ॥
अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!) । यह सुनकर हनुमान् जी ने अपना शरीर प्रकट किया । सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान् और वीर था ॥ ४ ॥
सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥ ५ ॥
तब (उसे देखकर) सीताजी के मन में विश्वास हुआ । हनुमान् जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया ॥ ५ ॥
दोहा :
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल ।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥ १६ ॥
हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है । (अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है) ॥ १६ ॥
चौपाई :
मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ॥ १ ॥
भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान् जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ । उन्होंने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमान् जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ ॥ १ ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ २ ॥
हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ । श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें । ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान् जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए ॥ २ ॥
बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥ ३ ॥
हनुमान् जी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा - हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया । आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है ॥ ३ ॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥ ४ ॥
हे माता! सुनो, सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है । (सीताजी ने कहा - ) हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं ॥ ४ ॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥ ५ ॥
(हनुमान् जी ने कहा - ) हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर) आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है ॥ ५ ॥