दोहा :

रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि ।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि ॥ २१७ ॥

श्री रामचंद्रजी संकोची और प्रेम के वश हैं और भरतजी प्रेम के समुद्र हैं । बनी-बनाई बात बिगड़ना चाहती है, इसलिए कुछ छल ढूँढकर इसका उपाय कीजिए ॥ २१७ ॥

चौपाई :

बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने । सहसनयन बिनु लोचन जाने ॥
मायापति सेवक सन माया । करइ त उलटि परइ सुरराया ॥ १ ॥

इंद्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुस्कुराए । उन्होंने हजार नेत्रों वाले इंद्र को (ज्ञान रूपी) नेत्रोंरहित (मूर्ख) समझा और कहा - हे देवराज! माया के स्वामी श्री रामचंद्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है ॥ १ ॥

तब किछु कीन्ह राम रुख जानी । अब कुचालि करि होइहि हानी ।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ । निज अपराध रिसाहिं न काऊ ॥ २ ॥

उस समय (पिछली बार) तो श्री रामचंद्रजी का रुख जानकर कुछ किया था, परन्तु इस समय कुचाल करने से हानि ही होगी । हे देवराज! श्री रघुनाथजी का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते ॥ २ ॥

जो अपराधु भगत कर करई । राम रोष पावक सो जरई ॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा । यह महिमा जानहिं दुरबासा ॥ ३ ॥

पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह श्री राम की क्रोधाग्नि में जल जाता है । लोक और वेद दोनों में इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है । इस महिमा को दुर्वासाजी जानते हैं ॥ ३ ॥

भरत सरिस को राम सनेही । जगु जप राम रामु जप जेही ॥ ४ ॥

सारा जगत् श्री राम को जपता है, वे श्री रामजी जिनको जपते हैं, उन भरतजी के समान श्री रामचंद्रजी का प्रेमी कौन होगा? ॥ ४ ॥

दोहा :

मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु ।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु ॥ २१८ ॥

हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ श्री रामचंद्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए । ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक का सामान दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाएगा ॥ २१८ ॥

चौपाई :

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा । रामहि सेवकु परम पिआरा ॥
मानत सुखु सेवक सेवकाईं । सेवक बैर बैरु अधिकाईं ॥ १ ॥

हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो । श्री रामजी को अपना सेवक परम प्रिय है । वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं ॥ १ ॥

जद्यपि सम नहिं राग न रोषू । गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू ॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा । जो जस करइ सो तस फलु चाखा ॥ २ ॥

यद्यपि वे सम हैं - उनमें न राग है, न रोष है और न वे किसी का पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं । उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है । जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है ॥ २ ॥

तदपि करहिं सम बिषम बिहारा । भगत अभगत हृदय अनुसारा ॥
अगनु अलेप अमान एकरस । रामु सगुन भए भगत प्रेम बस ॥ ३ ॥

तथापि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्त को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं) । गुणरहित, निर्लेप, मानरहित और सदा एकरस भगवान् श्री राम भक्त के प्रेमवश ही सगुण हुए हैं ॥ ३ ॥

राम सदा सेवक रुचि राखी । बेद पुरान साधु सुर साखी ॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई । करहु भरत पद प्रीति सुहाई ॥ ४ ॥

श्री रामजी सदा अपने सेवकों (भक्तों) की रुचि रखते आए हैं । वेद, पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं । ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजी के चरणों में सुंदर प्रीति करो ॥ ४ ॥

दोहा :

राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल ।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल ॥ २१९ ॥

हे देवराज इंद्र! श्री रामचंद्रजी के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे दूसरों के दुःख से दुःखी और दयालु होते हैं । फिर भरतजी तो भक्तों के शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो ॥ २१९ ॥

चौपाई :

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी । भरत राम आयस अनुसारी ॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू । भरत दोसु नहिं राउर मोहू ॥ १ ॥

प्रभु श्री रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं और भरतजी श्री रामजी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं । तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो । इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है ॥ १ ॥

सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी । भा प्रमोदु मन मिटी गलानी ॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ । लगे सराहन भरत सुभाऊ ॥ २ ॥

देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता मिट गई । तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे ॥ २ ॥

एहि बिधि भरत चले मग जाहीं । दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं ॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा । उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा ॥ ३ ॥

इस प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं । उनकी (प्रेममयी) दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी सिहाते हैं । भरतजी जब भी ‘राम’ कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है ॥ ३ ॥

द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना । पुरजन पेमु न जाइ बखाना ॥
बीच बास करि जमुनहिं आए । निरखि नीरु लोचन जल छाए ॥ ४ ॥

उनके (प्रेम और दीनता से पूर्ण) वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं । अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता । बीच में निवास (मुकाम) करके भरतजी यमुनाजी के तट पर आए । यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया ॥ ४ ॥