दोहा :
करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु ।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु ॥ २१२ ॥
इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी ने उनका समाधान करके कहा - अब आप लोग हमारे प्रेम प्रिय अतिथि बनिए और कृपा करके कंद-मूल, फल-फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिए ॥ २१२ ॥
चौपाई :
सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू । भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू ॥
जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी । चरन बंदि बोले कर जोरी ॥ १ ॥
मुनि के वचन सुनकर भरत के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर, चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले - ॥ १ ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरम यहु नाथ हमारा ॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए । सुचि सेवक सिष निकट बोलाए ॥ २ ॥
हे नाथ! आपकी आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है । भरतजी के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे । उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया ॥ २ ॥
चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई । कंद मूल फल आनहु जाई ।
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए । प्रमुदित निज निज काज सिधाए ॥ ३ ॥
(और कहा कि) भरत की पहुनाई करनी चाहिए । जाकर कंद, मूल और फल लाओ । उन्होंने ‘हे नाथ! बहुत अच्छा’ कहकर सिर नवाया और तब वे बड़े आनंदित होकर अपने-अपने काम को चल दिए ॥ ३ ॥
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता । तसि पूजा चाहिअ जस देवता ॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं । आयसु होइ सो करहिं गोसाईं ॥ ४ ॥
मुनि को चिंता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है । अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिए । यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गईं (और बोलीं - ) हे गोसाईं! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें ॥ ४ ॥
दोहा :
राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज ।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज ॥ २१३ ॥
मुनिराज ने प्रसन्न होकर कहा - छोटे भाई शत्रुघ्न और समाज सहित भरतजी श्री रामचन्द्रजी के विरह में व्याकुल हैं, इनकी पहुनाई (आतिथ्य सत्कार) करके इनके श्रम को दूर करो ॥ २१३ ॥
चौपाई :
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी । बड़भागिनि आपुहि अनुमानी ॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई । अतुलित अतिथि राम लघु भाई ॥ १ ॥
ऋद्धि-सिद्धि ने मुनिराज की आज्ञा को सिर चढ़ाकर अपने को बड़भागिनी समझा । सब सिद्धियाँ आपस में कहने लगीं- श्री रामचन्द्रजी के छोटे भाई भरत ऐसे अतिथि हैं, जिनकी तुलना में कोई नहीं आ सकता ॥ १ ॥
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू । होइ सुखी सब राज समाजू ॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना । जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना ॥ २ ॥
अतः मुनि के चरणों की वंदना करके आज वही करना चाहिए, जिससे सारा राज-समाज सुखी हो । ऐसा कहकर उन्होंने बहुत से सुंदर घर बनाए, जिन्हें देखकर विमान भी विलखते हैं (लजा जाते हैं) ॥ २ ॥
भोग बिभूति भूरि भरि राखे । देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे ॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें । जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें ॥ ३ ॥
उन घरों में बहुत से भोग (इन्द्रियों के विषय) और ऐश्वर्य (ठाट-बाट) का सामान भरकर रख दिया, जिन्हें देखकर देवता भी ललचा गए । दासी-दास सब प्रकार की सामग्री लिए हुए मन लगाकर उनके मनों को देखते रहते हैं (अर्थात उनके मन की रुचि के अनुसार करते रहते हैं) ॥ ३ ॥
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं । जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं ॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही । सुंदर सुखद जथा रुचि जेही ॥ ४ ॥
जो सुख के सामान स्वर्ग में भी स्वप्न में भी नहीं हैं, ऐसे सब सामान सिद्धियों ने पल भर में सजा दिए । पहले तो उन्होंने सब किसी को, जिसकी जैसी रुचि थी, वैसे ही, सुंदर सुखदायक निवास स्थान दिए ॥ ४ ॥
दोहा :
बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह ।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह ॥ २१४ ॥
और फिर कुटुम्ब सहित भरतजी को दिए, क्योंकि ऋषि भरद्वाजजी ने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी । (भरतजी चाहते थे कि उनके सब संगियों को आराम मिले, इसलिए उनके मन की बात जानकर मुनि ने पहले उन लोगों को स्थान देकर पीछे सपरिवार भरतजी को स्थान देने के लिए आज्ञा दी थी । ) मुनि श्रेष्ठ ने तपोबल से ब्रह्मा को भी चकित कर देने वाला वैभव रच दिया ॥ २१४ ॥
चौपाई :
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका । सब लघु लगे लोकपति लोका ॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी । देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी ॥ १ ॥
जब भरतजी ने मुनि के प्रभाव को देखा, तो उसके सामने उन्हें (इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि) सभी लोकपालों के लोक तुच्छ जान पड़े । सुख की सामग्री का वर्णन नहीं हो सकता, जिसे देखकर ज्ञानी लोग भी वैराग्य भूल जाते हैं ॥ १ ॥
आसन सयन सुबसन बिताना । बन बाटिका बिहग मृग नाना ॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना । बिमल जलासय बिबिध बिधाना ॥ २ ॥
आसन, सेज, सुंदर वस्त्र, चँदोवे, वन, बगीचे, भाँति-भाँति के पक्षी और पशु, सुगंधित फूल और अमृत के समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकार के (तालाब, कुएँ, बावली आदि) निर्मल जलाशय, ॥ २ ॥
असन पान सुचि अमिअ अमी से । देखि लोग सकुचात जमी से ॥
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें । लखि अभिलाषु सुरेस सची कें ॥ ३ ॥
तथा अमृत के भी अमृत-सरीखे पवित्र खान-पान के पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सब लोग संयमी पुरुषों (विरक्त मुनियों) की भाँति सकुचा रहे हैं । सभी के डेरों में (मनोवांछित वस्तु देने वाले) कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इन्द्र और इन्द्राणी को भी अभिलाषा होती है (उनका भी मन ललचा जाता है) ॥ ३ ॥
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी । सब कहँ सुलभ पदारथ चारी ॥
स्रक चंदन बनितादिक भोगा । देखि हरष बिसमय बस लोगा ॥ ४ ॥
वसन्त ऋतु है । शीतल, मंद, सुगंध तीन प्रकार की हवा बह रही है । सभी को (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) चारों पदार्थ सुलभ हैं । माला, चंदन, स्त्री आदि भोगों को देखकर सब लोग हर्ष और विषाद के वश हो रहे हैं । (हर्ष तो भोग सामग्रियों को और मुनि के तप प्रभाव को देखकर होता है और विषाद इस बात से होता है कि श्री राम के वियोग में नियम-व्रत से रहने वाले हम लोग भोग-विलास में क्यों आ फँसे, कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम-व्रतों को न त्याग दे) ॥ ४ ॥
दोहा :
संपति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार ।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार ॥ २१५ ॥
सम्पत्ति (भोग-विलास की सामग्री) चकवी है और भरतजी चकवा हैं और मुनि की आज्ञा खेल है, जिसने उस रात को आश्रम रूपी पिंजड़े में दोनों को बंद कर रखा और ऐसे ही सबेरा हो गया । (जैसे किसी बहेलिए के द्वारा एक पिंजड़े में रखे जाने पर भी चकवी-चकवे का रात को संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाजजी की आज्ञा से रात भर भोग सामग्रियों के साथ रहने पर भी भरतजी ने मन से भी उनका स्पर्श तक नहीं किया । ) ॥ २१५ ॥
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम
चौपाई :
कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा । नाई मुनिहि सिरु सहित समाजा ।
रिषि आयसु असीस सिर राखी । करि दंडवत बिनय बहु भाषी ॥ १ ॥
(प्रातःकाल) भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर और ऋषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढ़ाकर दण्डवत् करके बहुत विनती की ॥ १ ॥
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें । चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें ॥
रामसखा कर दीन्हें लागू । चलत देह धरि जनु अनुरागू ॥ २ ॥
तदनन्तर रास्ते की पहचान रखने वाले लोगों (कुशल पथप्रदर्शकों) के साथ सब लोगों को लिए हुए भरतजी त्रिकूट में चित्त लगाए चले । भरतजी रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिए हुए ऐसे जा रहे हैं, मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किए हुए हो ॥ २ ॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया । पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया ॥
लखन राम सिय पंथ कहानी । पूँछत सखहि कहत मृदु बानी ॥ ३ ॥
न तो उनके पैरों में जूते हैं और न सिर पर छाया है, उनका प्रेम नियम, व्रत और धर्म निष्कपट (सच्चा) है । वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी, श्री रामचंद्रजी और सीताजी के रास्ते की बातें पूछते हैं और वह कोमल वाणी से कहता है ॥ ३ ॥
राम बास थल बिटप बिलोकें । उर अनुराग रहत नहिं रोकें ॥
देखि दसा सुर बरिसहिं फूला । भइ मृदु महि मगु मंगल मूला ॥ ४ ॥
श्री रामचंद्रजी के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोके नहीं रुकता । भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे । पृथ्वी कोमल हो गई और मार्ग मंगल का मूल बन गया ॥ ४ ॥
दोहा :
किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात ।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात ॥ २१६ ॥
बादल छाया किए जा रहे हैं, सुख देने वाली सुंदर हवा बह रही है । भरतजी के जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ, वैसा श्री रामचंद्रजी को भी नहीं हुआ था ॥ २१६ ॥
चौपाई :
जड़ चेतन मग जीव घनेरे । जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे ॥
ते सब भए परम पद जोगू । भरत दरस मेटा भव रोगू ॥ १ ॥
रास्ते में असंख्य जड़-चेतन जीव थे । उनमें से जिनको प्रभु श्री रामचंद्रजी ने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्री रामचंद्रजी को देखा, वे सब (उसी समय) परमपद के अधिकारी हो गए, परन्तु अब भरतजी के दर्शन ने तो उनका भव (जन्म-मरण) रूपी रोग मिटा ही दिया । (श्री रामदर्शन से तो वे परमपद के अधिकारी ही हुए थे, परन्तु भरत दर्शन से उन्हें वह परमपद प्राप्त हो गया) ॥ १ ॥
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं । सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं ॥
बारक राम कहत जग जेऊ । होत तरन तारन नर तेऊ ॥ २ ॥
भरतजी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें श्री रामजी स्वयं अपने मन में स्मरण करते रहते हैं । जगत् में जो भी मनुष्य एक बार ‘राम’ कह लेते हैं, वे भी तरने-तारने वाले हो जाते हैं ॥ २ ॥
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता । कस न होइ मगु मंगलदाता ॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं । भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं ॥ ३ ॥
फिर भरतजी तो श्री रामचंद्रजी के प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे । तब भला उनके लिए मार्ग मंगल (सुख) दायक कैसे न हो? सिद्ध, साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरतजी को देखकर हृदय में हर्ष लाभ करते हैं ॥ ३ ॥
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू । जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू ॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई । रामहि भरतहि भेंट न होई ॥ ४ ॥
भरतजी के (इस प्रेम के) प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया (कि कहीं इनके प्रेमवश श्री रामजी लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए) । संसार भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है (मनुष्य जैसा आप होता है जगत् उसे वैसा ही दिखता है) । उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा - हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो ॥ ४ ॥