दोहा :
मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि ।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि ॥ १०० ॥
मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया । मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?) ॥ १०० ॥
चौपाई :
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई । महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी । भवहि समरपीं जानि भवानी ॥ १ ॥
वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई । पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया ॥ १ ॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा । हियँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं । जय जय जय संकर सुर करहीं ॥ २ ॥
जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इन्द्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए । श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे ॥ २ ॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना । सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू । सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥ ३ ॥
अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे । आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई । शिव-पार्वती का विवाह हो गया । सारे ब्राह्माण्ड में आनंद भर गया ॥ ३ ॥
दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥ ४ ॥
दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता ॥ ४ ॥
छन्द :
दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो ।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो ।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥
बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा - हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गए । तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया । फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकड़े (और कहा - ) ।
दोहा :
नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु ।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥ १०१ ॥
हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है । आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा । अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए ॥ १०१ ॥
चौपाई :
बहु बिधि संभु सासु समुझाई । गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही । लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥ १ ॥
शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया । तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं । फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी- ॥ १ ॥
करेहु सदा संकर पद पूजा । नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥
बचन कहत भरे लोचन बारी । बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥ २ ॥
हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है । उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है । इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया ॥ २ ॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं । पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं ॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी । धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥ ३ ॥
(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता । यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गईं, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा ॥ ३ ॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना । परम प्रेमु कछु जाइ न बरना ॥
सब नारिन्ह मिलि भेंटि भवानी । जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥ ४ ॥
मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं । बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता । भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं ॥ ४ ॥
छन्द :
जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं ।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं ॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले ।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥
पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए । पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं । तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं । महादेवजी सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले । सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे ।
दोहा :
चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु ।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥ १०२ ॥
तब हिमवान् अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले । वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया ॥ १०२ ॥
चौपाई :
तुरत भवन आए गिरिराई । सकल सैल सर लिए बोलाई ॥
आदर दान बिनय बहुमाना । सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥ १ ॥
पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया । हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की ॥ १ ॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए । सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥
जगत मातु पितु संभु भवानी । तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी ॥ २ ॥
जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए । (तुलसीदासजी कहते हैं कि) पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता ॥ २ ॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा । गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥ ३ ॥
शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे । वे नित्य नए विहार करते थे । इस प्रकार बहुत समय बीत गया ॥ ३ ॥
जब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुरु समर जेहिं मारा ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥ ४ ॥
तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा । वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है ॥ ४ ॥
छन्द :
जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा ।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं ।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥
षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है । शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे ।
दोहा :
चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु ।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥ १०३ ॥
गिरिजापति महादेवजी का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते । तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है? ॥ १०३ ॥
चौपाई :
संभु चरित सुनि सरस सुहावा । भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा ॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी । नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥ १ ॥
शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया । कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गई । नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई ॥ १ ॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी । दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा । तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥ २ ॥
वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकलती । उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले - ) हे मुनीश! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिवजी प्राणों के समान प्रिय हैं ॥ २ ॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं । रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू । राम भगत कर लच्छन एहू ॥ ३ ॥
शिवजी के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्री रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते । विश्वनाथ श्री शिवजी के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है ॥ ३ ॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी । बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई । को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥ ४ ॥
शिवजी के समान रघुनाथजी (की भक्ति) का व्रत धारण करने वाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्री रघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया । हे भाई! श्री रामचन्द्रजी को शिवजी के समान और कौन प्यारा है? ॥ ४ ॥
दोहा :
प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार ।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥ १०४ ॥
मैंने पहले ही शिवजी का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया । तुम श्री रामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो ॥ १०४ ॥
चौपाई :
मैं जाना तुम्हार गुन सीला । कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें । कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥ १ ॥
मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया । अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो । हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनंद हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता ॥ १ ॥
राम चरित अति अमित मुनीसा । कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥ २ ॥
हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है । सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते । तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके कहता हूँ ॥ २ ॥
सारद दारुनारि सम स्वामी । रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी । कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥ ३ ॥
सरस्वतीजी कठपुतली के समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्री रामचन्द्रजी (सूत पकड़कर कठपुतली को नचाने वाले) सूत्रधार हैं । अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदय रूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं ॥ ३ ॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा । बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥ ४ ॥
उन्हीं कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ । कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं ॥ ४ ॥
दोहा :
सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद ।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद ॥ १०५ ॥
सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं । वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनंदकन्द श्री महादेवजी की सेवा करते हैं ॥ १०५ ॥
चौपाई :
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं । ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला । नित नूतन सुंदर सब काला ॥ १ ॥
जो भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते । उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुंदर रहता है ॥ १ ॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया । सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ । तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥ २ ॥
वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है । वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है । एक बार प्रभु श्री शिवजी उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनंद हुआ ॥ २ ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला । बैठे सहजहिं संभु कृपाला ॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥ ३ ॥
अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए । कुंद के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था । बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे ॥ ३ ॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना । नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी । आननु सरद चंद छबि हारी ॥ ४ ॥
उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार हरने वाली थी । साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की शोभा को भी हरने वाला (फीकी करने वाला) था ॥ ४ ॥