दोहा :
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल ।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥ १०६ ॥
उनके सिर पर जटाओं का मुकुट और गंगाजी (शोभायमान) थीं । कमल के समान बड़े-बड़े नेत्र थे । उनका नील कंठ था और वे सुंदरता के भंडार थे । उनके मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभित था ॥ १०६ ॥
चौपाई :
बैठे सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥
पारबती भल अवसरु जानी । गईं संभु पहिं मातु भवानी ॥ १ ॥
कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांतरस ही शरीर धारण किए बैठा हो । अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वतीजी उनके पास गईं ।
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा । बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥
बैठीं सिव समीप हरषाई । पूरुब जन्म कथा चित आई ॥ २ ॥
अपनी प्यारी पत्नी जानकार शिवजी ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बायीं ओर बैठने के लिए आसन दिया । पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजी के पास बैठ गईं । उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आई ॥ २ ॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी । बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥
कथा जो सकल लोक हितकारी । सोइ पूछन चह सैल कुमारी ॥ ३ ॥
स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं । (याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करने वाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं ॥ ३ ॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी । त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥
चर अरु अचर नाग नर देवा । सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥ ४ ॥
(पार्वतीजी ने कहा - ) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करने वाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है । चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं ॥ ४ ॥
दोहा :
प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ।
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥ १०७ ॥
हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं । सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं । आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है ॥ १०७ ॥
चौपाई :
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी । जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥
तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना । कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥ १ ॥
हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आप श्री रघुनाथजी की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए ॥ १ ॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई । सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी । हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥ २ ॥
जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, वह भला दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को क्यों सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय में ऐसा विचार कर मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को दूर कीजिए ॥ २ ॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी । कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥
सेस सारदा बेद पुराना । सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥ ३ ॥
हे प्रभो! जो परमार्थतत्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्री रामचन्द्रजी को अनादि ब्रह्म कहते हैं और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्री रघुनाथजी का गुण गाते हैं ॥ ३ ॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती । सादर जपहु अनँग आराती ॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई । की अज अगुन अलखगति कोई ॥ ४ ॥
और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं - ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं? ॥ ४ ॥
दोहा :
जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि ।
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ १०८ ॥
यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे? (और यदि ब्रह्म हैं तो) स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गई? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यन्त चकरा रही है ॥ १०८ ॥
चौपाई :
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ । कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू । जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥ १ ॥
यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और हैं, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए । मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए । जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए ॥ १ ॥
मैं बन दीखि राम प्रभुताई । अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा । सो फलु भली भाँति हम पावा ॥ २ ॥
मैंने (पिछले जन्म में) वन में श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता देखी थी, परन्तु अत्यन्त भयभीत होने के कारण मैंने वह बात आपको सुनाई नहीं । तो भी मेरे मलिन मन को बोध न हुआ । उसका फल भी मैंने अच्छी तरह पा लिया ॥ २ ॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरें । करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें ॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा । नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥ ३ ॥
अब भी मेरे मन में कुछ संदेह है । आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ । हे प्रभो! आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया था (फिर भी मेरा संदेह नहीं गया), हे नाथ! यह सोचकर मुझ पर क्रोध न कीजिए ॥ ३ ॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं । रामकथा पर रुचि मन माहीं ॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा । भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥ ४ ॥
मुझे अब पहले जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मन में रामकथा सुनने की रुचि है । हे शेषनाग को अलंकार रूप में धारण करने वाले देवताओं के नाथ! आप श्री रामचन्द्रजी के गुणों की पवित्र कथा कहिए ॥ ४ ॥
दोहा :
बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि ।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ॥ १०९ ॥
मैं पृथ्वी पर सिर टेककर आपके चरणों की वंदना करती हूँ और हाथ जोड़कर विनती करती हूँ । आप वेदों के सिद्धांत को निचोड़कर श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन कीजिए ॥ १०९ ॥
चौपाई :
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी । दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं । आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥ १ ॥
यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ । संत लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ़ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते ॥ १ ॥
अति आरति पूछउँ सुरराया । रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी । निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥ २ ॥
हे देवताओं के स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझ पर दया करके श्री रघुनाथजी की कथा कहिए । पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइए, जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है ॥ २ ॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा । बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो दूषन काहीं ॥ ३ ॥
फिर हे प्रभु! श्री रामचन्द्रजी के अवतार (जन्म) की कथा कहिए तथा उनका उदार बाल चरित्र कहिए । फिर जिस प्रकार उन्होंने श्री जानकीजी से विवाह किया, वह कथा कहिए और फिर यह बतलाइए कि उन्होंने जो राज्य छोड़ा, सो किस दोष से ॥ ३ ॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहहु संकर सुखसीला ॥ ४ ॥
हे नाथ! फिर उन्होंने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए । हे सुखस्वरूप शंकर! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होंने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं ॥ ४ ॥
दोहा :
बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम ।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥ ११० ॥
हे कृपाधाम! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिए जो श्री रामचन्द्रजी ने किया- वे रघुकुल शिरोमणि प्रजा सहित किस प्रकार अपने धाम को गए? ॥ ११० ॥
चौपाई :
पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी । जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा । पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥ १ ॥
हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य का विभाग सहित वर्णन कीजिए ॥ १ ॥
औरउ राम रहस्य अनेका । कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥
जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई । सोउ दयाल राखहु जनि गोई ॥ २ ॥
(इसके सिवा) श्री रामचन्द्रजी के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिए । हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल है । हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखिएगा ॥ २ ॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना । आन जीव पाँवर का जाना ॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई । छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥ ३ ॥
वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है । दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वतीजी के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे ॥ ३ ॥
हर हियँ रामचरित सब आए । प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा । परमानंद अमित सुख पावा ॥ ४ ॥
श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए । प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया । श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया ॥ ४ ॥
दोहा :
मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह ।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥ १११ ।
शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे ॥ १११ ॥
चौपाई :
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥ १ ॥
जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है ॥ १ ॥
बंदउँ बालरूप सोइ रामू । सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥
मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ॥ २ ॥
मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं । मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें ॥ २ ॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी । हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी । तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ॥ ३ ॥
त्रिपुरासुर का वध करने वाले शिवजी श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम करके आनंद में भरकर अमृत के समान वाणी बोले - हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है ॥ ३ ॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा । सकल लोक जग पावनि गंगा ॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी । कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी ॥ ४ ॥
जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है । तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं । तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो ॥ ४ ॥
दोहा :
राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं ।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥ ११२ ॥
हे पार्वती! मेरे विचार में तो श्री रामजी की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है ॥ ११२ ॥
चौपाई :
तदपि असंका कीन्हिहु सोई । कहत सुनत सब कर हित होई ॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना । श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ॥ १ ॥
फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा । जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं ॥ १ ॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा । लोचन मोरपंख कर लेखा ॥
तेसिर कटु तुंबरि समतूला । जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥ २ ॥
जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं । वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते ॥ २ ॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी । जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना । जीह सो दादुर जीह समाना ॥ ३ ॥
जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान है ॥ ३ ॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती । सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला । सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥ ४ ॥
वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता । हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करने वाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करने वाली है ॥ ४ ॥
दोहा :
रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि ।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥ ११३ ॥
श्री रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देने वाली है और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा! ॥ ११३ ॥
चौपाई :
रामकथा सुंदर कर तारी । संसय बिहग उड़ावनिहारी ॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी । सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥ १ ॥
श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है । फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है । हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो ॥ १ ॥
राम नाम गुन चरित सुहाए । जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥
जथा अनंत राम भगवाना । तथा कथा कीरति गुन नाना ॥ २ ॥
वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं । जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं ॥ २ ॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी । कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी ॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई । सुखद संतसंमत मोहि भाई ॥ ३ ॥
तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी के अनुसार मैं कहूँगा । हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुंदर, सुखदायक और संतसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है ॥ ३ ॥
एक बात नहिं मोहि सोहानी । जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना । जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥ ४ ॥
परंतु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है । तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं - ॥ ४ ॥
दोहा :
कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच ।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥ ११४ ॥
जो मोह रूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं ॥ ११४ ॥
चौपाई :
अग्य अकोबिद अंध अभागी । काई बिषय मुकुर मन लागी ॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी । सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी ॥ १ ॥
जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए ॥ १ ॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी । जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना । राम रूप देखहिं किमि दीना ॥ २ ॥
और जिन्हें अपने लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं, जिनका हृदय रूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे श्री रामचन्द्रजी का रूप कैसे देखें! ॥ २ ॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका । जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं । तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं ॥ ३ ॥
जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है ॥ ३ ॥
बातुल भूत बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना । तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना ॥ ४ ॥
जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते । जिन्होंने महामोह रूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए ॥ ४ ॥
सोरठा :
अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद ।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥ ११५ ॥
अपने हृदय में ऐसा विचार कर संदेह छोड़ दो और श्री रामचन्द्रजी के चरणों को भजो । हे पार्वती! भ्रम रूपी अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो! ॥ ११५ ॥
चौपाई :
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा । गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अरूप अलख अज जोई । भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥ १ ॥
सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है - मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं । जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है ॥ १ ॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें । जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा । तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा ॥ २ ॥
जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं । (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं । ) जिसका नाम भ्रम रूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है? ॥ २ ॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा । नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥
सहज प्रकासरूप भगवाना । नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥ ३ ॥
श्री रामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य हैं । वहाँ मोह रूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है । वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञान रूपी रात्रि हो तब तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल हो, भगवान तो नित्य ज्ञान स्वरूप हैं । ) ॥ ३ ॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना । जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना । परमानंद परेस पुराना ॥ ४ ॥
हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान- ये सब जीव के धर्म हैं । श्री रामचन्द्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं । इस बात को सारा जगत जानता है ॥ ४ ॥
दोहा :
पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि प्रगट परावर नाथ ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ ॥ ११६ ॥
जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं - ऐसा कहकर शिवजी ने उनको मस्तक नवाया ॥ ११६ ॥
चौपाई :
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी । प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥
जथा गगन घन पटल निहारी । झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी ॥ १ ॥
अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्री रामचन्द्रजी पर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया ॥ १ ॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ । प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा । नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥ २ ॥
जो मनुष्य आँख में अँगुली लगाकर देखता है, उसके लिए तो दो चन्द्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं । हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश में अंधकार, धुएँ और धूल का सोहना (दिखना) । (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी नित्य निर्मल और निर्लेप हैं । ) ॥ २ ॥
बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एक तें एक सचेता ॥
सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ॥ ३ ॥
विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं । (अर्थात विषयों का प्रकाश इन्द्रियों से, इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है । ) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं ॥ ३ ॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
जासु सत्यता तें जड़ माया । भास सत्य इव मोह सहाया ॥ ४ ॥
यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं । वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं । जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है ॥ ४ ॥
दोहा :
रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि ।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥ ११७ ॥
जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है । यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता ॥ ११७ ॥
चौपाई :
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई । जदपि असत्य देत दुख अहई ॥
जौं सपनें सिर काटै कोई । बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥ १ ॥
इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है । यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता ॥ १ ॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई । गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा । मति अनुमानि निगम अस गावा ॥ २ ॥
हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्री रघुनाथजी हैं । जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं (जान) पाया । वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है - ॥ २ ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥ ३ ॥
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है ॥ ३ ॥
तन बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी । महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥ ४ ॥
वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है) । उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती ॥ ४ ॥
दोहा :
जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥ ११८ ॥
जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी हैं ॥ ११८ ॥
चौपाई :
कासीं मरत जंतु अवलोकी । जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अंतरजामी ॥ १ ॥
(हे पार्वती !) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले हैं ॥ १ ॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं । जनम अनेक रचित अघ दहहीं ॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं । भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥ २ ॥
विवश होकर (बिना इच्छा के) भी जिनका नाम लेने से मनुष्यों के अनेक जन्मों में किए हुए पाप जल जाते हैं । फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसार रूपी (दुस्तर) समुद्र को गाय के खुर से बने हुए गड्ढे के समान (अर्थात बिना किसी परिश्रम के) पार कर जाते हैं ॥ २ ॥
राम सो परमातमा भवानी । तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥
अस संसय आनत उर माहीं । ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं ॥ ३ ॥
हे पार्वती! वही परमात्मा श्री रामचन्द्रजी हैं । उनमें भ्रम (देखने में आता) है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यन्त ही अनुचित है । इस प्रकार का संदेह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं ॥ ३ ॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना । मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती । दारुन असंभावना बीती ॥ ४ ॥
शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी के सब कुतर्कों की रचना मिट गई । श्री रघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असम्भावना (जिसका होना- सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही! ॥ ४ ॥
दोहा :
पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि ।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥ ११९ ॥
बार- बार स्वामी (शिवजी) के चरणकमलों को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथों को जोड़कर पार्वतीजी मानो प्रेमरस में सानकर सुंदर वचन बोलीं ॥ ११९ ॥
चौपाई :
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी । मिटा मोह सरदातप भारी ॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ । राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ ॥ १ ॥
आपकी चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञान रूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया । हे कृपालु! आपने मेरा सब संदेह हर लिया, अब श्री रामचन्द्रजी का यथार्थ स्वरूप मेरी समझ में आ गया ॥ १ ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा । सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा ॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी । जदपि सहज जड़ नारि अयानी ॥ २ ॥
हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गई । यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर- ॥ २ ॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू । जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी । सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥ ३ ॥
हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए । (यह सत्य है कि) श्री रामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करने वाले हैं ॥ ३ ॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू । मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता । रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥ ४ ॥
फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए । पार्वती के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर- ॥ ४ ॥
दोहा :
हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान ।
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥ १२० क ॥
तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपा निधान शिवजी मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले - ॥ १२० (क) ॥
नवाह्नपारायण, पहला विश्राम
मासपारायण, चौथा विश्राम
सोरठा :
सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल ।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़ ॥ १२० ख ॥
हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़जी ने सुना था ॥ १२० (ख) ॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब ।
सुनहु राम अवतार चरति परम सुंदर अनघ ॥ १२० ग ॥
वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा । अभी तुम श्री रामचन्द्रजी के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो ॥ १२०(ग) ॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित ।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥ १२० घ ॥
श्री हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं । फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो ॥ १२० (घ) ॥