दोहा :
लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान ।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान ॥ ९१ ॥
सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं ॥ ९१ ॥
चौपाई :
सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा । जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला । तन बिभूति पट केहरि छाला ॥ १ ॥
शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे । जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया । शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया ॥ १ ॥
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा । नयन तीनि उपबीत भुजंगा ॥
गरल कंठ उर नर सिर माला । असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥ २ ॥
शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी । इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं ॥ २ ॥
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा । चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा ॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं । बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥ ३ ॥
एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है । शिवजी बैल पर चढ़कर चले । बाजे बज रहे हैं । शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी ॥ ३ ॥
बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता । चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता ॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा । नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥ ४ ॥
विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले । देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी ॥ ४ ॥
दोहा :
बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज ।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥ ९२ ॥
तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा - सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो ॥ ९२ ॥
चौपाई :
बर अनुहारि बरात न भाई । हँसी करैहहु पर पुर जाई ॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने । निज निज सेन सहित बिलगाने ॥ १ ॥
हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है । क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए ॥ १ ॥
मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं । हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं ॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे । भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे ॥ २ ॥
महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया ॥ २ ॥
सिव अनुसासन सुनि सब आए । प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए ॥
नाना बाहन नाना बेषा । बिहसे सिव समाज निज देखा ॥ ३ ॥
शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया । तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे ॥ ३ ॥
कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू । बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू ॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना । रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना ॥ ४ ॥
कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं । किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है । कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है ॥ ४ ॥
छंद :
तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें ।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें ॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै ।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै ॥
कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है । भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं । गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं । गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं । उनका वर्णन करते नहीं बनता ।
सोरठा :
नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब ।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ॥ ९३ ॥
भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं । देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं ॥ ९३ ॥
चौपाई :
जस दूलहु तसि बनी बराता । कौतुक बिबिध होहिं मग जाता ॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना । अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥ १ ॥
जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है । मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं । इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ॥ १ ॥
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं । लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं ॥
बन सागर सब नदी तलावा । हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा ॥ २ ॥
जगत में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा ॥ २ ॥
कामरूप सुंदर तन धारी । सहित समाज सहित बर नारी ॥
गए सकल तुहिमाचल गेहा । गावहिं मंगल सहित सनेहा ॥ ३ ॥
वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए । सभी स्नेह सहित मंगल गीत गाते हैं ॥ ३ ॥
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए । जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई । लागइ लघु बिरंचि निपुनाई ॥ ४ ॥
हिमाचल ने पहले ही से बहुत से घर सजवा रखे थे । यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए । नगर की सुंदर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी ॥ ४ ॥
छन्द :
लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही ।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही ॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं ।
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं ॥
नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है । वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुंदर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मंगल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं । वहाँ के सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं ॥
दोहा :
जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ ।
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ ॥ ९४ ॥
जिस नगर में स्वयं जगदम्बा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नए बढ़ते जाते हैं ॥ ९४ ॥
चौपाई :
नगर निकट बरात सुनि आई । पुर खरभरु सोभा अधिकाई ॥
करि बनाव सजि बाहन नाना । चले लेन सादर अगवाना ॥ १ ॥
बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई । अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले ॥ १ ॥
हियँ हरषे सुर सेन निहारी । हरिहि देखि अति भए सुखारी ॥
सिव समाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सब भागे ॥ २ ॥
देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले ॥ २ ॥
धरि धीरजु तहँ रहे सयाने । बालक सब लै जीव पराने ॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता । कहहिं बचन भय कंपित गाता ॥ ३ ॥
कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे । लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे । घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं ॥ ३ ॥
कहिअ काह कहि जाइ न बाता । जम कर धार किधौं बरिआता ॥
बरु बौराह बसहँ असवारा । ब्याल कपाल बिभूषन छारा ॥ ४ ॥
क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती । यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है । साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं ॥ ४ ॥
छन्द :
तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा ।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा ॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही ।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही ॥
दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है । उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा । लड़कों ने घर-घर यही बात कही ।
दोहा :
समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं ।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं ॥ ९५ ॥
महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं । उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है ॥ ९५ ॥
चौपाई :
लै अगवान बरातहि आए । दिए सबहि जनवास सुहाए ॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी । संग सुमंगल गावहिं नारी ॥ १ ॥
अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए । मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाने लगीं ॥ १ ॥
कंचन थार सोह बर पानी । परिछन चली हरहि हरषानी ॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा । अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा ॥ २ ॥
सुंदर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं । जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया ॥ २ ॥
भागि भवन पैठीं अति त्रासा । गए महेसु जहाँ जनवासा ॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी । लीन्ही बोली गिरीसकुमारी ॥ ३ ॥
बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए । मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया ॥ ३ ॥
अधिक सनेहँ गोद बैठारी । स्याम सरोज नयन भरे बारी ॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा । तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा ॥ ४ ॥
और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा - जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया? ॥ ४ ॥
छन्द :
कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई ।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई ॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं ।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं ॥
जिस विधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है । मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूँगी । चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी ।
दोहा :
भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि ।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि ॥ ९६ ॥ ।
हिमाचल की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं । मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं- ॥ ९६ ॥
चौपाई :
नारद कर मैं काह बिगारा । भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा ॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा । बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा ॥ १ ॥
मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया ॥ १ ॥
साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया । उदासीन धनु धामु न जाया ॥
पर घर घालक लाज न भीरा । बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा ॥ २ ॥
सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है, वे सबसे उदासीन हैं । इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ने वाले हैं । उन्हें न किसी की लाज है, न डर है । भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने ॥ २ ॥
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी । बोली जुत बिबेक मृदु बानी ॥
अस बिचारि सोचहि मति माता । सो न टरइ जो रचइ बिधाता ॥ ३ ॥
माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं - हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो! ॥ ३ ॥
करम लिखा जौं बाउर नाहू । तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका । मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका ॥ ४ ॥
जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है, तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता! क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलंक का टीका मत लो ॥ ४ ॥
छन्द :
जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं ।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं ॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं ।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं ॥
हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है । मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं ।
दोहा :
तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत ।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत ॥ ९७ ॥
इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए ॥ ९७ ॥
चौपाई :
तब नारद सबही समुझावा । पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा ॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी । जगदंबा तव सुता भवानी ॥ १ ॥
तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है ॥ १ ॥
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि । सदा संभु अरधंग निवासिनि ॥
जग संभव पालन लय कारिनि । निज इच्छा लीला बपु धारिनि ॥ २ ॥
ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं । सदा शिवजी के अर्द्धांग में रहती हैं । ये जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं और अपनी इच्छा से ही लीला शरीर धारण करती हैं ॥ २ ॥
जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई । नामु सती सुंदर तनु पाई ॥
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं । कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं ॥ ३ ॥
पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था । वहाँ भी सती शंकरजी से ही ब्याही गई थीं । यह कथा सारे जगत में प्रसिद्ध है ॥ ३ ॥
एक बार आवत सिव संगा । देखेउ रघुकुल कमल पतंगा ॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा । भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥ ४ ॥
एक बार इन्होंने शिवजी के साथ आते हुए (राह में) रघुकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का वेष धारण कर लिया ॥ ४ ॥
छन्द :
सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं ।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं ॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया ।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया ॥
सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकरजी ने उनको त्याग दिया । फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं । अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धांगिनी) हैं ।
दोहा :
सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद ।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ॥ ९८ ॥
तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया ॥ ९८ ॥
चौपाई :
तब मयना हिमवंतु अनंदे । पुनि पुनि पारबती पद बंदे ॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने । नगर लोग सब अति हरषाने ॥ १ ॥
तब मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की । स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए ॥ १ ॥
लगे होन पुर मंगल गाना । सजे सबहिं हाटक घट नाना ॥
भाँति अनेक भई जेवनारा । सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥ २ ॥
नगर में मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाए । पाक शास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी) ॥ २ ॥
सो जेवनार कि जाइ बखानी । बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥
सादर बोले सकल बराती । बिष्नु बिरंचि देव सब जाती ॥ ३ ॥
जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया ॥ ३ ॥
बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा । लागे परुसन निपुन सुआरा ॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी । लगीं देन गारीं मृदु बानी ॥ ४ ॥
भोजन (करने वालों) की बहुत सी पंगतें बैठीं । चतुर रसोइए परोसने लगे । स्त्रियों की मंडलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं ॥ ४ ॥
छन्द :
गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं ।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं ॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो ।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो ॥
सब सुंदरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं । देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं । भोजन के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता । (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए । फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए ।
दोहा :
बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ ॥ ९९ ॥
फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान् को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा ॥ ९९ ॥
चौपाई :
बोलि सकल सुर सादर लीन्हे । सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥
बेदी बेद बिधान सँवारी । सुभग सुमंगल गावहिं नारी ॥ १ ॥
सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए । वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्ठ मंगल गीत गाने लगीं ॥ १ ॥
सिंघासनु अति दिब्य सुहावा । जाइ न बरनि बिरंचि बनावा ॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई । हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥ २ ॥
वेदिका पर एक अत्यन्त सुंदर दिव्य सिंहासन था, जिस (की सुंदरता) का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था । ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गए ॥ २ ॥
बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं । करि सिंगारु सखीं लै आईं ॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे । बरनै छबि अस जग कबि को है ॥ ३ ॥
फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया । सखियाँ श्रृंगार करके उन्हें ले आईं । पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए । संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुंदरता का वर्णन कर सके? ॥ ३ ॥
जगदंबिका जानि भव भामा । सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ॥
सुंदरता मरजाद भवानी । जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी ॥ ४ ॥
पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया । भवानीजी सुंदरता की सीमा हैं । करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती ॥ ४ ॥
छन्द :
कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा ।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा ॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥
जगज्जननी पार्वतीजी की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता । वेद, शेषजी और सरस्वतीजी तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मंदबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुंदरता और शोभा की खान माता भवानी मंडप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गईं । वे संकोच के मारे पति (शिवजी) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी भौंरा तो वहीं (रसपान कर रहा) था ।