यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
यम् यम् – जिस; वा अपि – किसी भी; स्मरन् – स्मरण करते हुए; भावम् – स्वभाव को; त्यजति – परित्याग करता है; अन्ते – अन्त में; कलेवरम् – शरीर को; तम् तम् – वैसा ही; एव – निश्चय ही; एति – प्राप्त करता है; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; सदा – सदैव; तत् – उस; भाव – भाव; भावितः – स्मरण करता हुआ ।
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है ।
तात्पर्य
यहाँ पर मृत्यु के समय अपना स्वभाव बदलने की विधि का वर्णन है । जो व्यक्ति अन्त समय कृष्ण का चिन्तन करते हुए शरीर त्याग करता है, उसे परमेश्वर का दिव्य स्वभाव प्राप्त होता है । किन्तु यह सत्य नहीं है कि यदि कोई मृत्यु के समय कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ सोचता है तो उसे भी दिव्य अवस्था प्राप्त होती है । हमें इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए । तो फिर कोई मन की सही अवस्था में किस प्रकार मरे ? महापुरुष होते हुए भी महाराज भरत ने मृत्यु के समय एक हिरन का चिन्तन किया, अतः अगले जीवन में हिरन के शरीर में उनका देहान्तरण हुआ । यद्यपि हिरन के रूप में उन्हें अपने विगत कर्मों की स्मृति थी, किन्तु उन्हें पशु शरीर धारण करना ही पड़ा । निस्सन्देह मनुष्य के जीवन भर के विचार संचित होकर मृत्यु के समय उसके विचारों को प्रभावित करते हैं, अतः इस जीवन से उसका अगला जीवन बनता है । अगर कोई इस जीवन में सतोगुणी होता है और निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है तो सम्भावना यही है कि मृत्यु के समय उसे कृष्ण का स्मरण बना रहे । इससे उसे कृष्ण के दिव्य स्वभाव को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी । यदि कोई दिव्यरूप से कृष्ण की सेवा में लीन रहता है तो उसका अगला शरीर दिव्य (आध्यात्मिक) ही होगा, भौतिक नहीं । अतः जीवन के अन्त समय अपने स्वभाव को सफलतापूर्वक बदलने के लिए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप करना सर्वश्रेष्ठ विधि है ।