तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः ॥ ७ ॥

शब्दार्थ

तस्मात् – अतएव; सर्वेषु – समस्त; कालेषु – कालों में; माम् – मुझको; अनुस्मर – स्मरण करते रहो; युध्य – युद्ध करो; – भी; मयि – मुझमें; अर्पित – शरणागत होकर; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; माम् – मुझको; एव – निश्चय ही; एष्यसि – प्राप्त करोगे; असंशयः – निस्सन्देह ही ।

भावार्थ

अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए । अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे ।

तात्पर्य

अर्जुन को दिया गया यह उपदेश भौतिक कार्यों में व्यस्त रहने वाले समस्त व्यक्तियों के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है । भगवान् यह नहीं कहते कि कोई अपने कर्तव्यों को त्याग दे । मनुष्य उन्हें करते हुए साथ-साथ हरे कृष्ण का जप करके कृष्ण का चिन्तन कर सकता है । इससे मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त हो जायेगा और अपने मन तथा बुद्धि को कृष्ण में प्रवृत्त करेगा । कृष्ण का नाम-जप करने से मनुष्य परमधाम कृष्णलोक को प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।