अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
अन्त-काले – मृत्यु के समय; च – भी; माम् – मुझको; एव – निश्चय ही; स्मरन् – स्मरण करते हुए; मुक्त्वा – त्याग कर; कलेवरम् – शरीर को; यः – जो; प्रयाति – जाता है; सः – वह; मत्-भावम् – मेरे स्वभाव को; याति – प्राप्त करता है; न – नहीं; अस्ति – है; अत्र – यहाँ; संशयः – सन्देह ।
भावार्थ
और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है । इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है ।
तात्पर्य
इस श्लोक में कृष्णभावनामृत की महत्ता दर्शित की गई है । जो कोई भी कृष्णभावनामृत में अपना शरीर छोड़ता है, वह तुरन्त परमेश्वर के दिव्य स्वभाव (मद्भाव) को प्राप्त होता है । परमेश्वर शुद्धातिशुद्ध है, अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होता है, वह भी शुद्धातिशुद्ध होता है । स्मरन् शब्द महत्त्वपूर्ण है । श्रीकृष्ण का स्मरण उस अशुद्ध जीव से नहीं हो सकता जिसने भक्ति में रहकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास नहीं किया । अतः मनुष्य को चाहिए कि जीवन के प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करे । यदि जीवन के अन्त में सफलता वांछनीय है तो कृष्ण का स्मरण करना अनिवार्य है । अतः मनुष्य को निरन्तर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ — इस महामन्त्र का जप करना चाहिए । भगवान् चैतन्य ने उपदेश दिया है कि मनुष्य को वृक्ष के समान सहिष्णु होना चाहिए (तरोरिवसहिष्णुना) । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ - का जप करने वाले व्यक्ति को अनेक व्यवधानों का सामना करना पड़ सकता है । तो भी इस महामन्त्र का जप करते रहना चाहिए, जिससे जीवन के अन्त समय कृष्णभावनामृत का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त हो सके ।