लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२ ॥

शब्दार्थ

लोभः - लोभ; प्रवृत्तिः - कार्य; आरम्भः - उद्यम; कर्मणाम् - कर्मों में; अशमः - अनियन्त्रित; स्पृहा - इच्छा; रजसि - रजोगुण में; एतानि - ये सब; जायन्ते - प्रकट होते हैं; विवृद्धे - अधिकता होने पर; भरत-ऋषभ - हे भरतवंशियों में प्रमुख ।

भावार्थ

हे भरतवंशियों में प्रमुख! जब रजोगुण में वृद्धि हो जाती है, तो अत्यधिक आसक्ति, सकाम कर्म, गहन उद्यम तथा अनियन्त्रित इच्छा एवं लालसा के लक्षण प्रकट होते हैं ।

तात्पर्य

रजोगुणी व्यक्ति कभी भी पहले से प्राप्त पद से संतुष्ट नहीं होता, वह अपना पद बढ़ाने के लिए लालायित रहता है । यदि उसे मकान बनवाना है, तो वह महल बनवाने के लिए भरसक प्रयत्न करता है, मानो वह उस महल में सदा रहेगा । वह इन्द्रिय-तृप्ति के लिए अत्यधिक लालसा विकसित कर लेता है । उसमें इन्द्रियतृप्ति की कोई सीमा नहीं है । वह सदैव अपने परिवार के बीच तथा अपने घर में रह कर इन्द्रियतृप्ति करते रहना चाहता है । इसका कोई अन्त नहीं है । इन सारे लक्षणों को रजोगुण की विशेषता मानना चाहिए ।