किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-
मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥ ४६ ॥

शब्दार्थ

किरीटिनम् - मुकुट धारण किये; गदिनम् - गदाधारी; चक्रहस्तम् - चक्रधारण किये; इच्छामि - इच्छुक हूँ; त्वाम् - आपको; द्रष्टुम् - देखना; अहम् - मैं; तथा एव - उसी स्थिति में; तेन-एव - उसी; रूपेण - रूप में; चतुःभुजेन - चार हताहों वाले; सहस्त्र-बाहों - हे हजार भुजाओं वाले; भव - हो जाइये; विश्व-मूर्ते - हे विराट रूप ।

भावार्थ

हे विराट रूप! हे सहस्त्रभुज भगवान्! मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों । मैं उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ ।

तात्पर्य

ब्रह्मसंहिता में (५.३९) कहा गया है - रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् - भगवान् सैकड़ों हजारों रूपों में नित्य विद्यमान रहते हैं जिनमें से राम, नृसिंह, नारायण उनके मुख्य रूप हैं । रूप तो असंख्य हैं, किन्तु अर्जुन को ज्ञात था कि कृष्ण ही आदि भगवान् हैं, जिन्होंने यह क्षणिक विश्वरूप धारण किया है । अब वह प्रार्थना कर रहा है कि भगवान् अपने नारायण नित्यरूप का दर्शन दें । इस श्लोक से श्रीमद्भागवत के कथन की निस्सन्देह पुष्टि होती है कि कृष्ण आदि भगवान् हैं और अन्य सारे रूप उन्हीं से प्रकट होते हैं । वे अपने अंशों से भिन्न नहीं हैं और वे अपने असंख्य रूपों में भी ईश्वर ही बने रहते हैं । इन सारे रूपों में वे तरुण दिखते हैं । यही भगवान् का स्थायी लक्षण है । कृष्ण को जानने वाला इस भौतिक संसार के समस्त कल्मष से मुक्त हो जाता है ।