अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ ४५ ॥
शब्दार्थ
अदृष्ट-पूर्वम् - पहले कभी न देखा गया; हृषितः - हर्षित; अस्मि - हूँ; दृष्ट्वा - देखकर; भयेन - भय के कारण; च - भी; प्रव्यथितम् - विचलित, भयभीत; मनः - मन; मे - मेरा; तत् - वह; एव - निश्चय ही; मे - मुझको; दर्शय - दिखलाइये; देव - हे प्रभु; रूपम् - रूप; प्रसीद - प्रसन्न होइये; देव-ईश - ईशों के ईश; जगत्-निवास - हे जगत के आश्रय ।
भावार्थ
पहले कभी न देखे गये आपके इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है । अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखाएँ ।
तात्पर्य
अर्जुन को कृष्ण पर विश्वास है, क्योंकि वह उनका प्रिय मित्र है और मित्र रूप में वह अपने मित्र के ऐश्वर्य को देखकर अत्यन्त पुलकित है । अर्जुन यह देख कर अत्यन्त प्रसन्न है कि उसके मित्र कृष्ण भगवान् हैं और वे ऐसा विराट रूप प्रदर्शित कर सकते हैं । किन्तु साथ ही वह इस विराट रूप को देखकर भयभीत है कि उसने अनन्य मैत्रीभाव के कारण कृष्ण के प्रति अनेक अपराध किये हैं । इस प्रकार भयवश उसका मन विचलित है, यद्यपि भयभीत होने का कोई कारण नहीं है । अतएव अर्जुन कृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे अपना नारायण रूप दिखाएँ, क्योंकि वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं । यह विराट रूप भौतिक जगत के ही तुल्य भौतिक एवं नश्वर है । किन्तु वैकुण्ठलोक में नारायण के रूप में उनका शाश्वत चतुर्भुज रूप रहता है । वैकुण्ठलोक में असंख्य लोक हैं और कृष्ण इन सबमें अपने भिन्न नामों से अंश रूप में विद्यमान हैं । इस प्रकार अर्जुन वैकुण्ठलोक के उनके किसी एक रूप को देखना चाहता था । निस्सन्देह प्रत्येक वैकुण्ठलोक में नारायण का स्वरूप चतुर्भुजी है, किन्तु इन चारों हाथों में वे विभिन्न क्रम में शंख, गदा, कमल तथा चक्र के चिह्न धारण किये रहते हैं । विभिन्न हाथों में इन चारों चिह्नों के अनुसार नारायण भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं । ये सारे रूप कृष्ण के ही हैं, इसलिए अर्जुन कृष्ण के चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता है ।