श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥ ४७ ॥
शब्दार्थ
श्रीभगवान् उवाच - श्रीभगवान् ने कहा; मया - मेरे द्वारा; प्रसन्नेन - प्रसन्न; तव - तुमको; अर्जुन - हे अर्जुन; इदम् - इस; रूपम् - रूप को; परम् - दिव्य; दर्शितम् - दिखाया गया; आत्म-योगात् - अपनी अन्तरंगा शक्ति से; तेजःमयम् - तेज से पूर्ण; विश्वम् - समग्र ब्रह्माण्ड को; अनन्तम् - असीम; आद्याम् - आदि; यत् - जो; मे - मेरा; त्वत् अन्येन - तुम्हारे अतिरिक्त अन्य के द्वारा; न दृष्ट पूर्वम् - किसी ने पहले नहीं देखा ।
भावार्थ
भगवान् ने कहा - हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्वरूप का दर्शन कराया है । इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि-रूप को कभी नहीं देखा था ।
तात्पर्य
अर्जुन भगवान् के विश्वरूप को देखना चाहता था, अतः भगवान् कृष्ण ने अपने भक्त अर्जुन पर अनुकम्पा करते हुए उसे अपने तेजोमय तथा ऐश्वर्यमय विश्वरूप का दर्शन कराया । यह रूप सूर्य की भाँति चमक रहा था और इसके मुख निरन्तर परिवर्तित हो रहे थे । कृष्ण ने यह रूप अर्जुन की इच्छा को शान्त करने के लिए ही दिखलाया । यह रूप कृष्ण की उस अन्तरंगाशक्ति द्वारा प्रकट हुआ जो मानव कल्पना से परे है । अर्जुन से पूर्व भगवान् के इस विश्वरूप का किसी ने दर्शन नहीं किया था, किन्तु जब अर्जुन को यह रूप दिखाया गया तो स्वर्गलोक तथा अन्य लोकों के भक्त भी इसे देख सके । उन्होंने इस रूप को पहले नहीं देखा था, केवल अर्जुन के कारण वे इस देख पा रहे थे । दूसरे शब्दों में, कृष्ण की कपा से भगवान् के सारे शिष्य भक्त उस विश्वरूप का दर्शन कर सके, जिसे अर्जुन देख रहा था । किसी ने टीका की है कि जब कृष्ण सन्धि का प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास गये थे, तो उसे भी इसी रूप का दर्शन कराया गया था । दुर्भाग्यवश दुर्योधन ने शान्ति प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया, किन्तु कृष्ण ने उस समय अपने कुछ रूप दिखाए थे । किन्तु वे रूप अर्जुन को दिखाये गये इस रूप से सर्वथा भिन्न थे । यह स्पष्ट कहा गया है कि इस रूप को पहले किसी ने भी नहीं देखा था ।