अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ २९ ॥
शब्दार्थ
अनन्तः – अनन्त; च – भी; अस्मि – हूँ; नागानाम् – फणों वाले सापों में; वरुणः – जल के अधिष्ठाता देवता; यादसाम् – समस्त जलचरों में; अहम् – मैं हूँ; पितृृणाम् – पितरों में; अर्यमा – अर्यमा; च – भी; अस्मि – हूँ; यमः – मृत्यु का नियामक; संयमताम् – समस्त नियमनकर्ताओं में; अहम् – मैं हूँ ।
भावार्थ
अनेक फणों वाले नागों में मैं अनन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव हूँ । मैं पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में मैं मृत्युराज यम हूँ ।
तात्पर्य
अनेक फणों वाले नागों में अनन्त सबसे प्रधान हैं और इसी प्रकार जलचरों में वरुण देव प्रधान हैं । ये दोनों कृष्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं । इसी प्रकार पितृलोक के अधिष्ठाता अर्यमा हैं जो कृष्ण के प्रतिनिधि हैं । ऐसे अनेक जीव हैं जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, किन्तु इनमें यम प्रमुख हैं । यम पृथ्वीलोक के निकटवर्ती लोक में रहते हैं । मृत्यु के बाद पापी लोगों को वहाँ ले जाया जाता है और यम उन्हें तरह-तरह का दण्ड देने की व्यवस्था करते हैं ।