चौपाई :
एक बार रघुनाथ बोलाए । गुर द्विज पुरबासी सब आए ॥
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन । बोले बचन भगत भव भंजन ॥ १ ॥
एक बार श्री रघुनाथजी के बुलाए हुए गुरु वशिष्ठजी, ब्राह्मण और अन्य सब नगर निवासी सभा में आए । जब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन यथायोग्य बैठ गए, तब भक्तों के जन्म-मरण को मिटाने वाले श्री रामजी वचन बोले - ॥ १ ॥
सुनहु सकल पुरजन मम बानी । कहउँ न कछु ममता उर आनी ॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई । सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ॥ २ ॥
हे समस्त नगर निवासियों! मेरी बात सुनिए । यह बात मैं हृदय में कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ । न अनीति की बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है, इसलिए (संकोच और भय छोड़कर, ध्यान देकर) मेरी बातों को सुन लो और (फिर) यदि तुम्हें अच्छी लगे, तो उसके अनुसार करो! ॥ २ ॥
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई । मम अनुसासन मानै जोई ॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई । तौ मोहि बरजहु भय बिसराई ॥ ३ ॥
वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने । हे भाई! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना ॥ ३ ॥
बड़ें भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा । पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ॥ ४ ॥
बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है । सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है) । यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है । इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया, ॥ ४ ॥
दोहा :
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥ ४३ ॥
वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है ॥ ४३ ॥
चौपाई :
एहि तन कर फल बिषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं । पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥ १ ॥
हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है । अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं ॥ १ ॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई । गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ॥
आकर चारि लच्छ चौरासी । जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ॥ २ ॥
जो पारसमणि को खोकर बदले में घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान) नहीं कहता । यह अविनाशी जीव (अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चार खानों और चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है ॥ २ ॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा ॥
कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥ ३ ॥
माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में हुआ) यह सदा भटकता रहता है । बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं ॥ ३ ॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो । सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा । दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ॥ ४ ॥
यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है । मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है । सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं । इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं, ॥ ४ ॥
दोहा :
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥ ४४ ॥
जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है ॥ ४४ ॥
चौपाई :
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू । सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू ॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई । भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ॥ १ ॥
यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो । हे भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है ॥ १ ॥
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका । साधन कठिन न मन कहुँ टेका ॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ । भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ॥ २ ॥
ज्ञान अगम (दुर्गम) है (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं । उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई आधार नहीं है । बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता ॥ २ ॥
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी । बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता । सतसंगति संसृति कर अंता ॥ ३ ॥
भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते । सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है ॥ ३ ॥
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा । मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा । जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ॥ ४ ॥
जगत् में पुण्य एक ही है, (उसके समान) दूसरा नहीं । वह है - मन, कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणों की पूजा करना । जो कपट का त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है, उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं ॥ ४ ॥
दोहा :
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि ॥ ४५ ॥
और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता ॥ ४५ ॥
चौपाई :
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा । जोग न मख जप तप उपवासा ।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई । जथा लाभ संतोष सदाई ॥ १ ॥
कहो तो, भक्ति मार्ग में कौन-सा परिश्रम है? इसमें न योग की आवश्यकता है, न यज्ञ, जप, तप और उपवास की! (यहाँ इतना ही आवश्यक है कि) सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे ॥ १ ॥
मोर दास कहाइ नर आसा । करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई । एहि आचरन बस्य मैं भाई ॥ २ ॥
मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है? (अर्थात् उसकी मुझ पर आस्था बहुत ही निर्बल है । ) बहुत बात बढ़ाकर क्या हूँ? हे भाइयों! मैं तो इसी आचरण के वश में हूँ ॥ २ ॥
बैर न बिग्रह आस न त्रासा । सुखमय ताहि सदा सब आसा ॥
अनारंभ अनिकेत अमानी । अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी ॥ ३ ॥
न किसी से वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रखे, न भय ही करे । उसके लिए सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं । जो कोई भी आरंभ (फल की इच्छा से कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घर में ममता नहीं है), जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो (भक्ति करने में) निपुण और विज्ञानवान् है ॥ ३ ॥
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा । तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई । दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ॥ ४ ॥
संतजनों के संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहाँ तक कि स्वर्ग और मुक्ति तक (भक्ति के सामने) तृण के समान हैं, जो भक्ति के पक्ष में हठ करता है, पर (दूसरे के मत का खण्डन करने की) मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है ॥ ४ ॥
दोहा :
मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह ।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह ॥ ४६ ॥
जो मेरे गुण समूहों के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोह से रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो (परमात्मारूप) परमानन्दराशि को प्राप्त है ॥ ४६ ॥
चौपाई :
सुनत सुधा सम बचन राम के । गहे सबनि पद कृपाधाम के ॥
जननि जनक गुर बंधु हमारे । कृपा निधान प्रान ते प्यारे ॥ १ ॥
श्रीरामचन्द्रजी के अमृत के समान वचन सुनकर सबने कृपाधाम के चरण पकड़ लिए (और कहा - ) हे कृपानिधान! आप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई सब कुछ हैं और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं ॥ १ ॥
तनु धनु धाम राम हितकारी । सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी ॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ । मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ॥ २ ॥
और हे शरणागत के दुःख हरने वाले रामजी! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकार से हित करने वाले हैं । ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता । माता-पिता (हितैषी हैं और शिक्षा भी देते हैं) परन्तु वे भी स्वार्थपरायण हैं (इसलिए ऐसी परम हितकारी शिक्षा नहीं देते) ॥ २ ॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं । सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ॥ ३ ॥
हे असुरों के शत्रु! जगत् में बिना हेतु के (निःस्वार्थ) उपकार करने वाले तो दो ही हैं - एक आप, दूसरे आपके सेवक । जगत् में (शेष) सभी स्वार्थ के मित्र हैं । हे प्रभो! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ का भाव नहीं है ॥ ३ ॥
सब के बचन प्रेम रस साने । सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने ॥
निज निज गृह गए आयसु पाई । बरनत प्रभु बतकही सुहाई ॥ ४ ॥
सबके प्रेम रस में सने हुए वचन सुनकर श्री रघुनाथजी हृदय में हर्षित हुए । फिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की सुन्दर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गए ॥ ४ ॥
दोहा :
उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप ।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ॥ ४७ ॥
(शिवजी कहते हैं - ) हे उमा! अयोध्या में रहने वाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थस्वरूप हैं, जहाँ स्वयं सच्चिदानंदघन ब्रह्म श्री रघुनाथजी राजा हैं ॥ ४७ ॥