दोहा :
नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह ।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह ॥ ३६ ॥
हे नाथ! न तो मुझे कुछ संदेह है और न स्वप्न में भी शोक और मोह है । हे कृपा और आनंद के समूह! यह केवल आपकी ही कृपा का फल है ॥ ३६ ॥
चौपाई :
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई । मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई ॥
संतन्ह कै महिमा रघुराई । बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई ॥ १ ॥
तथापि हे कृपानिधान! मैं आप से एक धृष्टता करता हूँ । मैं सेवक हूँ और आप सेवक को सुख देने वाले हैं (इससे मेरी दृष्टता को क्षमा कीजिए और मेरे प्रश्न का उत्तर देकर सुख दीजिए) । हे रघुनाथजी वेद-पुराणों ने संतों की महिमा बहुत प्रकार से गाई है ॥ १ ॥
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई । तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई ॥
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन । कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन ॥ २ ॥
आपने भी अपने श्रीमुख से उनकी बड़ाई की है और उन पर प्रभु (आप) का प्रेम भी बहुत है । हे प्रभो! मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूँ । आप कृपा के समुद्र हैं और गुण तथा ज्ञान में अत्यंत निपुण हैं ॥ २ ॥
संत असंत भेद बिलगाई । प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई ॥
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता । अगनित श्रुति पुरान बिख्याता ॥ ३ ॥
हे शरणागत का पालन करने वाले! संत और असंत के भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर कहिए । (श्री रामजी ने कहा - ) हे भाई! संतों के लक्षण (गुण) असंख्य हैं, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं ॥ ३ ॥
संत असंतन्हि कै असि करनी । जिमि कुठार चंदन आचरनी ॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई । निज गुन देइ सुगंध बसाई ॥ ४ ॥
संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है । हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है ॥ ४ ॥
दोहा :
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड ।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड ॥ ३७ ॥
इसी गुण के कारण चंदन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत् का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुख को यह दंड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं ॥ ३७ ॥
चौपाई :
बिषय अलंपट सील गुनाकर । पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी । लोभामरष हरष भय त्यागी ॥ १ ॥
संत विषयों में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं, उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है । वे (सबमें, सर्वत्र, सब समय) समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है । वे मद से रहित और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं ॥ १ ॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया । मन बच क्रम मम भगति अमाया ॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी । भरत प्रान सम मम ते प्रानी ॥ २ ॥
उनका चित्त बड़ा कोमल होता है । वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्म से मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं । सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं । हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणों के समान हैं ॥ २ ॥
बिगत काम मम नाम परायन । सांति बिरति बिनती मुदितायन ॥
सीतलता सरलता मयत्री । द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री ॥ ३ ॥
उनको कोई कामना नहीं होती । वे मेरे नाम के परायण होते है । शांति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं । उनमें शीलता, सरलता, सबके प्रति मित्र भाव और ब्राह्मण के चरणों में प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करने वाली है ॥ ३ ॥
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर । जानेहु तात संत संतत फुर ॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं । परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ॥ ४ ॥
हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना । जो शम (मन के निग्रह), दम (इंद्रियों के निग्रह), नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते, ॥ ४ ॥
दोहा :
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज ।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज ॥ ३८ ॥
जिन्हें निंदा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं ॥ ३८ ॥
चौपाई :
सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ । भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ ॥
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई । जिमि कपिलहि घालइ हरहाई ॥ १ ॥
अब असंतों दुष्टों का स्वभाव सुनो, कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिए । उनका संग सदा दुःख देने वाला होता है । जैसे हरहाई (बुरी जाति की) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गाय को अपने संग से नष्ट कर डालती है ॥ १ ॥
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी । जरहिं सदा पर संपति देखी ॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई । हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ॥ २ ॥
बदुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है । वे पराई संपत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं । वे जहाँ कहीं दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ी निधि (खजाना) पा ली हो ॥ २ ॥
काम क्रोध मद लोभ परायन । निर्दय कपटी कुटिल मलायन ॥
बयरु अकारन सब काहू सों । जो कर हित अनहित ताहू सों ॥ ३ ॥
वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं । वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं । जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते हैं ॥ ३ ॥
झूठइ लेना झूठइ देना । झूठइ भोजन झूठ चबेना ।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा । खाइ महा अहि हृदय कठोरा ॥ ४ ॥
उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है । झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है । (अर्थात् वे लेने-देने के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक मार लेते हैं अथवा झूठी डींग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपए ले लिए, करोड़ों का दान कर दिया । इसी प्रकार खाते हैं चने की रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आए । अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं हमें बढ़िया भोजन से वैराग्य है, इत्यादि । मतलब यह कि वे सभी बातों में झूठ ही बोला करते हैं । ) जैसे मोर साँपों को भी खा जाता है । वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं । (परंतु हृदय के बड़े ही निर्दयी होते हैं) ॥ ४ ॥
दोहा :
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद ।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ॥ ३९ ॥
वे दूसरों से द्रोह करते हैं और पराई स्त्री, पराए धन तथा पराई निंदा में आसक्त रहते हैं । वे पामर और पापमय मनुष्य नर शरीर धारण किए हुए राक्षस ही हैं ॥ ३९ ॥
चौपाई :
लोभइ ओढ़न लोभइ डासन । सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न ॥
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई । स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ॥ १ ॥
लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात् लोभ ही से वे सदा घिरे हुए रहते हैं) । वे पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता । यदि किसी की बड़ाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते हैं मानों उन्हें जूड़ी आ गई हो ॥ १ ॥
जब काहू कै देखहिं बिपती । सुखी भए मानहुँ जग नृपती ॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी । लंपट काम लोभ अति क्रोधी ॥ २ ॥
और जब किसी की विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत्भर के राजा हो गए हों । वे स्वार्थपरायण, परिवार वालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लंपट और अत्यंत क्रोधी होते हैं ॥ २ ॥
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं । आपु गए अरु घालहिं आनहिं ॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा । संत संग हरि कथा न भावा ॥ ३ ॥
वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते । आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं, (साथ ही अपने संग से) दूसरों को भी नष्ट करते हैं । मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं । उन्हें न संतों का संग अच्छा लगता है, न भगवान् की कथा ही सुहाती है ॥ ३ ॥
अवगुन सिंधु मंदमति कामी । बेद बिदूषक परधन स्वामी ॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा । दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा ॥ ४ ॥
वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेदों के निंदक और जबर्दस्ती पराए धन के स्वामी (लूटने वाले) होते हैं । वे दूसरों से द्रोह तो करते ही हैं, परंतु ब्राह्मण द्रोह विशेषता से करते हैं । उनके हृदय में दम्भ और कपट भरा रहता है, परंतु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण किए रहते हैं ॥ ४ ॥
दोहा :
ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं ।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ॥ ४० ॥
ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते । द्वापर में थोड़े से होंगे और कलियुग में तो इनके झुंड के झुंड होंगे ॥ ४० ॥
चौपाई :
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर । कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर ॥ १ ॥
हे भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है । हे तात! समस्त पुराणों और वेदों का यह निर्णय (निश्चित सिद्धांत) मैंने तुमसे कहा है, इस बात को पण्डित लोग जानते हैं ॥ १ ॥
नर सरीर धरि जे पर पीरा । करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ॥
लकरहिं मोह बस नर अघ नाना । स्वारथ रत परलोक नसाना ॥ २ ॥
मनुष्य का शरीर धारण करके जो लोग दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं, उनको जन्म-मृत्यु के महान् संकट सहने पड़ते हैं । मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण होकर अनेकों पाप करते हैं, इसी से उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है ॥ २ ॥
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता । सुभ अरु असुभ कर्म फलदाता ॥
अस बिचारि जे परम सयाने । भजहिं मोहि संसृत दुख जाने ॥ ३ ॥
हे भाई! मैं उनके लिए कालरूप (भयंकर) हूँ और उनके अच्छे और बुरे कर्मों का (यथायोग्य) फल देने वाला हूँ! ऐसा विचार कर जो लोग परम चतुर हैं वे संसार (के प्रवाह) को दुःख रूप जानकर मुझे ही भजते हैं ॥ ३ ॥
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक । भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक ॥
संत असंतन्ह के गुन भाषे । ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे ॥ ४ ॥
इसी से वे शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं । (इस प्रकार) मैंने संतों और असंतों के गुण कहे । जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है, वे जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते ॥ ४ ॥
दोहा :
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥ ४१ ॥
हे तात! सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है) । गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेक है ॥ ४१ ॥
चौपाई :
श्रीमुख बचन सुनत सब भाई । हरषे प्रेम न हृदयँ समाई ॥
करहिं बिनय अति बारहिं बारा । हनूमान हियँ हरष अपारा ॥ १ ॥
भगवान के श्रीमुख से ये वचन सुनकर सब भाई हर्षित हो गए । प्रेम उनके हृदयों में समाता नहीं । वे बार-बार बड़ी विनती करते हैं । विशेषकर हनुमान् जी के हृदय में अपार हर्ष है ॥ १ ॥
पुनि रघुपति निज मंदिर गए । एहि बिधि चरित करत नित नए ॥
बार बार नारद मुनि आवहिं । चरित पुनीत राम के गावहिं ॥ २ ॥ `
तदनन्तर श्री रामचंद्रजी अपने महल को गए । इस प्रकार वे नित्य नई लीला करते हैं । नारद मुनि अयोध्या में बार-बार आते हैं और आकर श्री रामजी के पवित्र चरित्र गाते हैं ॥ २ ॥
नित नव चरित देखि मुनि जाहीं । ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं ॥
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं । पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं ॥ ३ ॥
मुनि यहाँ से नित्य नए-नए चरित्र देखकर जाते हैं और ब्रह्मलोक में जाकर सब कथा कहते हैं । ब्रह्माजी सुनकर अत्यंत सुख मानते हैं (और कहते हैं - ) हे तात! बार-बार श्री रामजी के गुणों का गान करो ॥ ३ ॥
सनकादिक नारदहि सराहहिं । जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं ॥
सुनि गुन गान समाधि बिसारी । सादर सुनहिं परम अधिकारी ॥ ४ ॥
सनकादि मुनि नारदजी की सराहना करते हैं । यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परंतु श्री रामजी का गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधि को भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं । वे (रामकथा सुनने के) श्रेष्ठ अधिकारी हैं ॥ ४ ॥
दोहा :
जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ॥ ४२ ॥
सनकादि मुनि जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्म समाधि) छोड़कर श्री रामजी के चरित्र सुनते हैं । यह जानकर भी जो श्री हरि की कथा से प्रेम नहीं करते, उनके हृदय (सचमुच ही) पत्थर (के समान) हैं ॥ ४२ ॥