चौपाई :
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही । सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥
रामानुज लघु रेख खचाई । सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥ १ ॥
हे कान्त! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो । आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता । उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है ॥ १ ॥
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा । जाके दूत केर यह कामा ॥
कौतुक सिंधु नाघि तव लंका । आयउ कपि केहरी असंका ॥ २ ॥
हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान्) आपकी लंका में निर्भय चला आया! ॥ २ ॥
रखवारे हति बिपिन उजारा । देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा । कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥ ३ ॥
रखवालों को मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला । आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमार को मार डाला और संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया । उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था? ॥ ३ ॥
अब पति मृषा गाल जनि मारहु । मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु । अग जग नाथ अतुलबल जानहु ॥ ४ ॥
अब हे स्वामी! झूठ (व्यर्थ) गाल न मारिए (डींग न हाँकिए) मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए । हे पति! आप श्री रघुपति को (निरा) राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामी) और अतुलनीय बलवान् जानिए ॥ ४ ॥
बान प्रताप जान मारीचा । तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला । रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला ॥ ५ ॥
श्री रामजी के बाण का प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था, परन्तु आपने उसका कहना भी नहीं माना । जनक की सभा में अगणित राजागण थे । वहाँ विशाल और अतुलनीय बल वाले आप भी थे ॥ ५ ॥
भंजि धनुष जानकी बिआही । तब संग्राम जितेहु किन ताही ॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा । राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥ ६ ॥
वहाँ शिवजी का धनुष तोड़कर श्री रामजी ने जानकी को ब्याहा, तब आपने उनको संग्राम में क्यों नहीं जीता? इंद्रपुत्र जयन्त उनके बल को कुछ-कुछ जानता है । श्री रामजी ने पकड़कर, केवल उसकी एक आँख ही फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया ॥ ६ ॥
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी । तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी ॥ ७ ॥
शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली । तो भी आपके हृदय में (उनसे लड़ने की बात सोचते) विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती! ॥ ७ ॥
दोहा :
बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबंध ।
बालि एक सर मार्यो तेहि जानहु दसकंध ॥ ३६ ॥
जिन्होंने विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबन्ध को भी मार डाला और जिन्होंने बालि को एक ही बाण से मार दिया, हे दशकन्ध! आप उन्हें (उनके महत्व को) समझिए! ॥ ३६ ॥
चौपाई :
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला । उतरे प्रभु दल सहित सुबेला ॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू । दूत पठायउ तव हित हेतू ॥ १ ॥
जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) करुणामय भगवान् ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा ॥ १ ॥
सभा माझ जेहिं तव बल मथा । करि बरूथ महुँ मृगपति जथा ॥
अंगद हनुमत अनुचर जाके । रन बाँकुरे बीर अति बाँके ॥ २ ॥
जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुंड में आकर सिंह (उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है) रण में बाँके अत्यंत विकट वीर अंगद और हनुमान् जिनके सेवक हैं, ॥ २ ॥
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू । मुधा मान ममता मद बहहू ॥
अहह कंत कृत राम बिरोधा । काल बिबस मन उपज न बोधा ॥ ३ ॥
हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं । आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने श्री रामजी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता ॥ ३ ॥
काल दंड गहि काहु न मारा । हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा ॥
निकट काल जेहि आवत साईं । तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं ॥ ४ ॥
काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता । वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है । हे स्वामी! जिसका काल (मरण समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है ॥ ४ ॥
दोहा :
दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु ।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ॥ ३७ ॥
आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया । (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए ॥ ३७ ॥
चौपाई :
नारि बचन सुनि बिसिख समाना । सभाँ गयउ उठि होत बिहाना ॥
बैठ जाइ सिंघासन फूली । अति अभिमान त्रास सब भूली ॥ १ ॥
स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यंत अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा ॥ १ ॥
इहाँ राम अंगदहि बोलावा । आइ चरन पंकज सिरु नावा ॥
अति आदर समीप बैठारी । बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥ २ ॥
यहाँ (सुबेल पर्वत पर) श्री रामजी ने अंगद को बुलाया । उन्होंने आकर चरणकमलों में सिर नवाया । बड़े आदर से उन्हें पास बैठाकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी हँसकर बोले ॥ २ ॥
बालितनय कौतुक अति मोही । तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही ॥
रावनु जातुधान कुल टीका । भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥ ३ ॥
हे बालि के पुत्र! मुझे बड़ा कौतूहल है । हे तात! इसी से मैं तुमसे पूछता हूँ, सत्य कहना । जो रावण राक्षसों के कुल का तिलक है और जिसके अतुलनीय बाहुबल की जगत्भर में धाक है, ॥ ३ ॥
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए । कहहु तात कवनी बिधि पाए ॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी । मुकुट न होहिं भूप न गुन चारी ॥ ४ ॥
उसके चार मुकुट तुमने फेंके । हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकार से पाया! (अंगद ने कहा - ) हे सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देने वाले! सुनिए । वे मुकुट नहीं हैं । वे तो राजा के चार गुण हैं ॥ ४ ॥
साम दान अरु दंड बिभेदा । नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥
नीति धर्म के चरन सुहाए । अस जियँ जानि पहिं आए ॥ ५ ॥
हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं । ये नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं, (किन्तु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं ॥ ५ ॥