दोहा :
धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस ।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस ॥ ३८ क ॥
दशशीश रावण धर्महीन, प्रभु के पद से विमुख और काल के वश में है, इसलिए हे कोसलराज! सुनिए, वे गुण रावण को छोड़कर आपके पास आ गए हैं ॥ ३८ (क) ॥
परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार ।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार ॥ ३८ ख ॥
अंगद की परम चतुरता (पूर्ण उक्ति) कानों से सुनकर उदार श्री रामचंद्रजी हँसने लगे । फिर बालि पुत्र ने किले के (लंका के) सब समाचार कहे ॥ ३८ (ख) ॥
चौपाई :
रिपु के समाचार जब पाए । राम सचिव सब निकट बोलाए ॥
लंका बाँके चारि दुआरा । केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा ॥ १ ॥
जब शत्रु के समाचार प्राप्त हो गए, तब श्री रामचंद्रजी ने सब मंत्रियों को पास बुलाया (और कहा - ) लंका के चार बड़े विकट दरवाजे हैं । उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए, इस पर विचार करो ॥ १ ॥
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन । सुमरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन ॥
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा । चारि अनी कपि कटकु बनावा ॥ २ ॥
तब वानरराज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान् और विभीषण ने हृदय में सूर्य कुल के भूषण श्री रघुनाथजी का स्मरण किया और विचार करके उन्होंने कर्तव्य निश्चित किया । वानरों की सेना के चार दल बनाए ॥ २ ॥
जथाजोग सेनापति कीन्हे । जूथप सकल बोलि तब लीन्हे ॥
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए । सुनि कपि सिंघनाद करि धाए ॥ ३ ॥
और उनके लिए यथायोग्य (जैसे चाहिए वैसे) सेनापति नियुक्त किए । फिर सब यूथपतियों को बुला लिया और प्रभु का प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर, सिंह के समान गर्जना करके दौड़े ॥ ३ ॥
हरषित राम चरन सिर नावहिं । गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं ॥
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा । जय रघुबीर कोसलाधीसा ॥ ४ ॥
वे हर्षित होकर श्री रामजी के चरणों में सिर नवाते हैं और पर्वतों के शिखर ले-लेकर सब वीर दौड़ते हैं । ‘कोसलराज श्री रघुवीरजी की जय हो’ पुकारते हुए भालू और वानर गरजते और ललकारते हैं ॥ ४ ॥
जानत परम दुर्ग अति लंका । प्रभु प्रताप कपि चले असंका ॥
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी ॥ मुखहिं निसार बजावहिं भेरी ॥ ५ ॥
लंका को अत्यंत श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर प्रभु श्री रामचंद्रजी के प्रताप से निडर होकर चले । चारों ओर से घिरी हुई बादलों की घटा की तरह लंका को चारों दिशाओं से घेरकर वे मुँह से डंके और भेरी बजाने लगे ॥ ५ ॥