दोहा :

राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन ।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥ ५५ ॥

सुषेण ने आकर श्री रामजी के चरणारविन्दों में सिर नवाया । उसने पर्वत और औषध का नाम बताया, (और कहा कि) हे पवनपुत्र! औषधि लेने जाओ ॥ ५५ ॥

चौपाई :

राम चरन सरसिज उर राखी । चला प्रभंजनसुत बल भाषी ॥
उहाँ दूत एक मरमु जनावा । रावनु कालनेमि गृह आवा ॥ १ ॥

श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान् जी अपना बल बखानकर (अर्थात् मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले । उधर एक गुप्तचर ने रावण को इस रहस्य की खबर दी । तब रावण कालनेमि के घर आया ॥ १ ॥

दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना । पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना ॥
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा । तासु पंथ को रोकन पारा ॥ २ ॥

रावण ने उसको सारा मर्म (हाल) बतलाया । कालनेमि ने सुना और बार-बार सिर पीटा (खेद प्रकट किया) । (उसने कहा - ) तुम्हारे देखते-देखते जिसने नगर जला डाला, उसका मार्ग कौन रोक सकता है? ॥ २ ॥

भजि रघुपति करु हित आपना । छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना ॥
नील कंज तनु सुंदर स्यामा । हृदयँ राखु लोचनाभिरामा ॥ ३ ॥

श्री रघुनाथजी का भजन करके तुम अपना कल्याण करो! हे नाथ! झूठी बकवाद छोड़ दो । नेत्रों को आनंद देने वाले नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो ॥ ३ ॥

मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू । महा मोह निसि सूतत जागू ॥
काल ब्याल कर भच्छक जोई । सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई ॥ ४ ॥

मैं-तू (भेद-भाव) और ममता रूपी मूढ़ता को त्याग दो । महामोह (अज्ञान) रूपी रात्रि में सो रहे हो, सो जाग उठो, जो काल रूपी सर्प का भी भक्षक है, कहीं स्वप्न में भी वह रण में जीता जा सकता है? ॥ ४ ॥

दोहा :

सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार ।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार ॥ ५६ ॥

उसकी ये बातें सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ । तब कालनेमि ने मन में विचार किया कि (इसके हाथ से मरने की अपेक्षा) श्री रामजी के दूत के हाथ से ही मरूँ तो अच्छा है । यह दुष्ट तो पाप समूह में रत है ॥ ५६ ॥

चौपाई :

अस कहि चला रचिसि मग माया । सर मंदिर बर बाग बनाया ॥
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम । मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ॥ १ ॥

वह मन ही मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची । तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया । हनुमान् जी ने सुंदर आश्रम देखकर सोचा कि मुनि से पूछकर जल पी लूँ, जिससे थकावट दूर हो जाए ॥ १ ॥

राच्छस कपट बेष तहँ सोहा । मायापति दूतहि चह मोहा ॥
जाइ पवनसुत नायउ माथा । लाग सो कहै राम गुन गाथा ॥ २ ॥

राक्षस वहाँ कपट (से मुनि) का वेष बनाए विराजमान था । वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था । मारुति ने उसके पास जाकर मस्तक नवाया । वह श्री रामजी के गुणों की कथा कहने लगा ॥ २ ॥

होत महा रन रावन रामहिं । जितिहहिं राम न संसय या महिं ॥
इहाँ भएँ मैं देखउँ भाई । ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ॥ ३ ॥

(वह बोला-) रावण और राम में महान् युद्ध हो रहा है । रामजी जीतेंगे, इसमें संदेह नहीं है । हे भाई! मैं यहाँ रहता हुआ ही सब देख रहा हूँ । मुझे ज्ञानदृष्टि का बहुत बड़ा बल है ॥ ३ ॥

मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल । कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल ॥
सर मज्जन करि आतुर आवहु । दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु ॥ ४ ॥

हनुमान् जी ने उससे जल माँगा, तो उसने कमण्डलु दे दिया । हनुमान् जी ने कहा - थोड़े जल से मैं तृप्त नहीं होने वाला । तब वह बोला- तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूँ, जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो ॥ ४ ॥

दोहा :

सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान ।
मारी सो धरि दिब्य तनु चली गगन चढ़ि जान ॥ ५७ ॥

तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमान् जी का पैर पकड़ लिया । हनुमान् जी ने उसे मार डाला । तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़कर आकाश को चली ॥ ५७ ॥

चौपाई :

कपि तव दरस भइउँ निष्पापा । मिटा तात मुनिबर कर सापा ॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा । मानहु सत्य बचन कपि मोरा ॥ १ ॥

(उसने कहा - ) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई । हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया । हे कपि! यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है । मेरा वचन सत्य मानो ॥ १ ॥

अस कहि गई अपछरा जबहीं । निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं ॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू । पाछें हमहिं मंत्र तुम्ह देहू ॥ २ ॥

ऐसा कहकर ज्यों ही वह अप्सरा गई, त्यों ही हनुमान् जी निशाचर के पास गए । हनुमान् जी ने कहा - हे मुनि! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिए । पीछे आप मुझे मंत्र दीजिएगा ॥ २ ॥

सिर लंगूर लपेटि पछारा । निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना । सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥ ३ ॥

हनुमान् जी ने उसके सिर को पूँछ में लपेटकर उसे पछाड़ दिया । मरते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया । उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े । यह (उसके मुँह से राम-राम का उच्चारण) सुनकर हनुमान् जी मन में हर्षित होकर चले ॥ ३ ॥

देखा सैल न औषध चीन्हा । सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ॥
गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ । अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ ॥ ४ ॥

उन्होंने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके । तब हनुमान् जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया । पर्वत लेकर हनुमान् जी रात ही में आकाश मार्ग से दौड़ चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए ॥ ४ ॥