चौपाई :
परिहरि बयरु देहु बैदेही । भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥
ताके बचन बान सम लागे । करिआ मुँह करि जाहि अभागे ॥ १ ॥
(अतः) वैर छोड़कर उन्हें जानकीजी को दे दो और कृपानिधान परम स्नेही श्री रामजी का भजन करो । रावण को उसके वचन बाण के समान लगे । (वह बोला-) अरे अभागे! मुँह काला करके (यहाँ से) निकल जा ॥ १ ॥
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही । अब जनि नयन देखावसि मोही ॥
तेहिं अपने मन अस अनुमाना । बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥ २ ॥
तू बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुझे मार ही डालता । अब मेरी आँखों को अपना मुँह न दिखला । रावण के ये वचन सुनकर उसने (माल्यवान् ने) अपने मन में ऐसा अनुमान किया कि इसे कृपानिधान श्री रामजी अब मारना ही चाहते हैं ॥ २ ॥
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा । तब सकोप बोलेउ घननादा ॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा । करिहउँ बहुत कहौं का थोरा ॥ ३ ॥
वह रावण को दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया । तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला- सबेरे मेरी करामात देखना । मैं बहुत कुछ करूँगा, थोड़ा क्या कहूँ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोड़ा ही होगा) ॥ ३ ॥
सुनि सुत बचन भरोसा आवा । प्रीति समेत अंक बैठावा ॥
करत बिचार भयउ भिनुसारा । लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥ ४ ॥
पुत्र के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया । उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठा लिया । विचार करते-करते ही सबेरा हो गया । वानर फिर चारों दरवाजों पर जा लगे ॥ ४ ॥
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा । नगर कोलाहलु भयउ घनेरा ॥
बिबिधायुध धर निसिचर धाए । गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥ ५ ॥
वानरों ने क्रोध करके दुर्गम किले को घेर लिया । नगर में बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया । राक्षस बहुत तरह के अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और उन्होंने किले पर पहाड़ों के शिखर ढहाए ॥ ५ ॥
छंद :
ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले ।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए ।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहि जहँ सो तहँ निसिचर हए ॥
उन्होंने पर्वतों के करोड़ों शिखर ढहाए, अनेक प्रकार से गोले चलने लगे । वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं, मानो प्रलयकाल के बादल हों । विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं, कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं), उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं, तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते) । वे पहाड़ उठाकर उसे किले पर फेंकते हैं । राक्षस जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते हैं, वहीं) मारे जाते हैं ।
दोहा :
मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ पुनि छेंका आइ ।
उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥ ४९ ॥
मेघनाद ने कानों से ऐसा सुना कि वानरों ने आकर फिर किले को घेर लिया है । तब वह वीर किले से उतरा और डंका बजाकर उनके सामने चला ॥ ४९ ॥
चौपाई :
कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता । धन्वी सकल लोत बिख्याता ॥
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा । अंगद हनूमंत बल सींवा ॥ १ ॥
(मेघनाद ने पुकारकर कहा - ) समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बल की सीमा अंगद और हनुमान् कहाँ हैं? ॥ १ ॥
कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही । आजु सबहि हठि मारउँ ओही ॥
अस कहि कठिन बान संधाने । अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने ॥ २ ॥
भाई से द्रोह करने वाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक (अवश्य ही) मारूँगा । ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का सन्धान किया और अत्यंत क्रोध करके उसे कान तक खींचा ॥ २ ॥
सर समूह सो छाड़ै लागा । जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा ॥
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर । सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर ॥ ३ ॥
वह बाणों के समूह छोड़ने लगा । मानो बहुत से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे हों । जहाँ-तहाँ वानर गिरते दिखाई पड़ने लगे । उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके ॥ ३ ॥
जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा । बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा ॥
सो कपि भालु न रन महँ देखा । कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा ॥ ४ ॥
रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले । सबको युद्ध की इच्छा भूल गई । रणभूमि में ऐसा एक भी वानर या भालू नहीं दिखाई पड़ा, जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात् जिसके केवल प्राणमात्र ही न बचे हों, बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो) ॥ ४ ॥
दोहा :
दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर ।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर ॥ ५० ॥
फिर उसने सबको दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वी पर गिर पड़े । बलवान् और धीर मेघनाद सिंह के समान नाद करके गरजने लगा ॥ ५० ॥
चौपाई :
देखि पवनसुत कटक बिहाला । क्रोधवंत जनु धायउ काला ॥
महासैल एक तुरत उपारा । अति रिस मेघनाद पर डारा ॥ १ ॥
सारी सेना को बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान् क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ आता हो । उन्होंने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े ही क्रोध के साथ उसे मेघनाद पर छोड़ा ॥ १ ॥
आवत देखि गयउ नभ सोई । रथ सारथी तुरग सब खोई ॥
बार बार पचार हनुमाना । निकट न आव मरमु सो जाना ॥ २ ॥
पहाड़ों को आते देखकर वह आकाश में उड़ गया । (उसके) रथ, सारथी और घोड़े सब नष्ट हो गए (चूर-चूर हो गए) हनुमान् जी उसे बार-बार ललकारते हैं । पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बल का मर्म जानता था ॥ २ ॥
रघुपति निकट गयउ घननादा । नाना भाँति करेसि दुर्बादा ॥
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे । कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे ॥ ३ ॥
(तब) मेघनाद श्री रघुनाथजी के पास गया और उसने (उनके प्रति) अनेकों प्रकार के दुर्वचनों का प्रयोग किया । (फिर) उसने उन पर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाए । प्रभु ने खेल में ही सबको काटकर अलग कर दिया ॥ ३ ॥
देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना । करै लाग माया बिधि नाना ॥
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला । डरपावै गहि स्वल्प सपेला ॥ ४ ॥
श्री रामजी का प्रताप (सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकार की माया करने लगा । जैसे कोई व्यक्ति छोटा सा साँप का बच्चा हाथ में लेकर गरुड़ को डरावे और उससे खेल करे ॥ ४ ॥
दोहा :
जासु प्रबल माया बस सिव बिरंचि बड़ छोट ।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट ॥ ५१ ॥
शिवजी और ब्रह्माजी तक बड़े-छोटे (सभी) जिनकी अत्यंत बलवान् माया के वश में हैं, नीच बुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है ॥ ५१ ॥
चौपाई :
नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा । महि ते प्रगट होहिं जलधारा ॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची । मारु काटु धुनि बोलहिं नाची ॥ १ ॥
आकाश में (ऊँचे) चढ़कर वह बहुत से अंगारे बरसाने लगा । पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं । अनेक प्रकार के पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर ‘मारो, काटो’ की आवाज करने लगीं ॥ १ ॥
बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा । बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा ॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा । सूझ न आपन हाथ पसारा ॥ २ ॥
वह कभी तो विष्टा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत से पत्थर फेंक देता था । फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था ॥ २ ॥
कपि अकुलाने माया देखें । सब कर मरन बना ऐहि लेखें ॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने । भए सभीत सकल कपि जाने ॥ ३ ॥
माया देखकर वानर अकुला उठे । वे सोचने लगे कि इस हिसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना । यह कौतुक देखकर श्री रामजी मुस्कुराए । उन्होंने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गए हैं ॥ ३ ॥
एक बान काटी सब माया । जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया ॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके । भए प्रबल रन रहहिं न रोके ॥ ४ ॥
तब श्री रामजी ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अंधकार के समूह को हर लेता है । तदनन्तर उन्होंने कृपाभरी दृष्टि से वानर-भालुओं की ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गए कि रण में रोकने पर भी नहीं रुकते थे ॥ ४ ॥
दोहा :
आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ ॥ ५२ ॥
श्री रामजी से आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए श्री लक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर चले ॥ । ५२ ॥
चौपाई :
छतज नयन उर बाहु बिसाला । हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला ॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए । नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए ॥ १ ॥
उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं । हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिए हुए है । इधर रावण ने भी बड़े-बड़े योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े ॥ १ ॥
भूधर नख बिटपायुध धारी । धाए कपि जय राम पुकारी ॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी । इत उत जय इच्छा नहिं थोरी ॥ २ ॥
पर्वत, नख और वृक्ष रूपी हथियार धारण किए हुए वानर ‘श्री रामचंद्रजी की जय’ पुकारकर दौड़े । वानर और राक्षस सब जोड़ी से जोड़ी भिड़ गए । इधर और उधर दोनों ओर जय की इच्छा कम न थी (अर्थात् प्रबल थी) ॥ २ ॥
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं । कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं ॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू । सीस तोरि गहि भुजा उपारू ॥ ३ ॥
वानर उनको घूँसों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं । विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं । ‘मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाऐँ पकड़कर उखाड़ लो’ ॥ ३ ॥
असि रव पूरि रही नव खंडा । धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा ॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा । कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा ॥ ४ ॥
नवों खंडों में ऐसी आवाज भर रही है । प्रचण्ड रुण्ड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे हैं । आकाश में देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं । उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनंद ॥ ४ ॥
दोहा :
रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ ॥ ५३ ॥
खून गड्ढों में भर-भरकर जम गया है और उस पर धूल उड़कर पड़ रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो अंगारों के ढेरों पर राख छा रही हो ॥ ५३ ॥
चौपाई :
घायल बीर बिराजहिं कैसे । कुसुमति किंसुक के तरु जैसे ॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा । भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा ॥ १ ॥
घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलास के पेड़ । लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध करके एक-दूसरे से भिड़ते हैं ॥ १ ॥
एकहि एक सकइ नहिं जीती । निसिचर छल बल करइ अनीती ॥
क्रोधवंत तब भयउ अनंता । भंजेउ रथ सारथी तुरंता ॥ २ ॥
एक-दूसरे को (कोई किसी को) जीत नहीं सकता । राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान् अनन्तजी (लक्ष्मणजी) क्रोधित हुए और उन्होंने तुरंत उसके रथ को तोड़ डाला और सारथी को टुकड़े-टुकड़े कर दिया! ॥ २ ॥
नाना बिधि प्रहार कर सेषा । राच्छस भयउ प्रान अवसेषा ॥
रावन सुत निज मन अनुमाना । संकठ भयउ हरिहि मम प्राना ॥ ३ ॥
शेषजी (लक्ष्मणजी) उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे । राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए । रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण संकट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेंगे ॥ ३ ॥
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी । तेजपुंज लछिमन उर लागी ॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें । तब चलि गयउ निकट भय त्यागें ॥ ४ ॥
तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई । वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मणजी की छाती में लगी । शक्ति लगने से उन्हें मूर्छा आ गई । तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया ॥ ४ ॥
दोहा :
मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ ॥ ५४ ॥
मेघनाद के समान सौ करोड़ (अगणित) योद्धा उन्हें उठा रहे हैं, परन्तु जगत् के आधार श्री शेषजी (लक्ष्मणजी) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गए ॥ ५४ ॥
चौपाई :
सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू । जारइ भुवन चारिदस आसू ॥
सक संग्राम जीति को ताही । सेवहिं सुर नर अग जग जाही ॥ १ ॥
(शिवजी कहते हैं - ) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं, उनको संग्राम में कौन जीत सकता है? ॥ १ ॥
यह कौतूहल जानइ सोई । जा पर कृपा राम कै होई ॥
संध्या भय फिरि द्वौ बाहनी । लगे सँभारन निज निज अनी ॥ २ ॥
इस लीला को वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो । संध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएँ लौट पड़ीं, सेनापति अपनी-अपनी सेनाएँ संभालने लगे ॥ २ ॥
व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर । लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर ॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना । अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥ ३ ॥
व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचंद्रजी ने पूछा - लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान् उन्हें ले आए । छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना ॥ ३ ॥
जामवंत कह बैद सुषेना । लंकाँ रहइ को पठई लेना ॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता । आनेउ भवन समेत तुरंता ॥ ४ ॥
जाम्बवान् ने कहा - लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान् जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए ॥ ४ ॥