दोहा :
तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ।
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ ॥ ४ ॥
तब हनुमान् जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी (अर्थात् अग्नि की साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी) ॥ ४ ॥
चौपाई :
कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा । लछिमन राम चरित् सब भाषा ॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी । मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ॥ १ ॥
दोनों ने (हृदय से) प्रीति की, कुछ भी अंतर नहीं रखा । तब लक्ष्मणजी ने श्री रामचंद्रजी का सारा इतिहास कहा । सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा - हे नाथ! मिथिलेशकुमारी जानकीजी मिल जाएँगी ॥ १ ॥
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा । बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ॥
गगन पंथ देखी मैं जाता । परबस परी बहुत बिलपाता ॥ २ ॥
मैं एक बार यहाँ मंत्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था । तब मैंने पराए (शत्रु) के वश में पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीताजी को आकाश मार्ग से जाते देखा था ॥ २ ॥
राम राम हा राम पुकारी । हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा । पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ॥ ३ ॥
हमें देखकर उन्होंने ‘राम! राम! हा राम!’ पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था । श्री रामजी ने उसे माँगा, तब सुग्रीव ने तुरंत ही दे दिया । वस्त्र को हृदय से लगाकर रामचंद्रजी ने बहुत ही सोच किया ॥ ३ ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा । तजहु सोच मन आनहु धीरा ॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई । जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ॥ ४ ॥
सुग्रीव ने कहा - हे रघुवीर! सुनिए । सोच छोड़ दीजिए और मन में धीरज लाइए । मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूँगा, जिस उपाय से जानकीजी आकर आपको मिलें ॥ ४ ॥
दोहा :
सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव ।
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ॥ ५ ॥
कृपा के समुद्र और बल की सीमा श्री रामजी सखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए । (और बोले - ) हे सुग्रीव! मुझे बताओ, तुम वन में किस कारण रहते हो? ॥ ५ ॥
चौपाई :
नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाइ । प्रीति रही कछु बरनि न जाई ॥
मयसुत मायावी तेहि नाऊँ । आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ ॥ १ ॥
(सुग्रीव ने कहा - ) हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं, हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती । हे प्रभो! मय दानव का एक पुत्र था, उसका नाम मायावी था । एक बार वह हमारे गाँव में आया ॥ १ ॥
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा । बाली रिपु बल सहै न पारा ॥
धावा बालि देखि सो भागा । मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ॥ २ ॥
उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर पुकारा (ललकारा) । बालि शत्रु के बल (ललकार) को सह नहीं सका । वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा । मैं भी भाई के संग लगा चला गया ॥ २ ॥
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई । तब बालीं मोहि कहा बुझाई ॥
परिखेसु मोहि एक पखवारा । नहिं आवौं तब जानेसु मारा ॥ ३ ॥
वह मायावी एक पर्वत की गुफा में जा घुसा । तब बालि ने मुझे समझाकर कहा - तुम एक पखवाड़े (पंद्रह दिन) तक मेरी बाट देखना । यदि मैं उतने दिनों में न आऊँ तो जान लेना कि मैं मारा गया ॥ ३ ॥
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी । निसरी रुधिर धार तहँ भारी ॥
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई । सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ॥ ४ ॥
हे खरारि! मैं वहाँ महीने भर तक रहा । वहाँ (उस गुफा में से) रक्त की बड़ी भारी धारा निकली । तब (मैंने समझा कि) उसने बालि को मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा, इसलिए मैं वहाँ (गुफा के द्वार पर) एक शिला लगाकर भाग आया ॥ ४ ॥
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं । दीन्हेउ मोहि राज बरिआईं ॥
बाली ताहि मारि गृह आवा । देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा ॥ ५ ॥
मंत्रियों ने नगर को बिना स्वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया । बालि उसे मारकर घर आ गया । मुझे (राजसिंहासन पर) देखकर उसने जी में भेद बढ़ाया (बहुत ही विरोध माना) । (उसने समझा कि यह राज्य के लोभ से ही गुफा के द्वार पर शिला दे आया था, जिससे मैं बाहर न निकल सकूँ और यहाँ आकर राजा बन बैठा) ॥ ५ ॥
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी । हरि लीन्हसि सर्बसु अरु नारी ॥
ताकें भय रघुबीर कृपाला सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ॥ ६ ॥
उसने मुझे शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया । हे कृपालु रघुवीर! मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा ॥ ६ ॥
इहाँ साप बस आवत नाहीं । तदपि सभीत रहउँ मन माहीं ॥
सुन सेवक दुःख दीनदयाला फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ॥ ७ ॥
वह शाप के कारण यहाँ नहीं आता, तो भी मैं मन में भयभीत रहता हूँ । सेवक का दुःख सुनकर दीनों पर दया करने वाले श्री रघुनाथजी की दोनों विशाल भुजाएँ फड़क उठीं ॥ ७ ॥
दोहा :
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान ।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ॥ ६ ॥
(उन्होंने कहा - ) हे सुग्रीव! सुनो, मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूँगा । ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे ॥ ६ ॥
चौपाई :
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना । मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥ १ ॥
जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है । अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने ॥ १ ॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई । ते सठ कत हठि करत मिताई ॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा ॥ २ ॥
जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे । उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे ॥ २ ॥
देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित करई ॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥ ३ ॥
देने-लेने में मन में शंका न रखे । अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे । विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे । वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं ॥ ३ ॥
आगें कह मृदु बचन बनाई । पाछें अनहित मन कुटिलाई ॥
जाकर िचत अहि गति सम भाई । अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई ॥ ४ ॥
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है - हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है ॥ ४ ॥
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी । कपटी मित्र सूल सम चारी ॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें । सब बिधि घटब काज मैं तोरें ॥ ५ ॥
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं । हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो । मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा) ॥ ५ ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा । बालि महाबल अति रनधीरा ॥
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए । बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ॥ ६ ॥
सुग्रीव ने कहा - हे रघुवीर! सुनिए, बालि महान् बलवान् और अत्यंत रणधीर है । फिर सुग्रीव ने श्री रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए । श्री रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया ।
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती । बालि बधब इन्ह भइ परतीती ॥
बार-बार नावइ पद सीसा । प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ॥ ७ ॥
श्री रामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालि का वध अवश्य करेंगे । वे बार-बार चरणों में सिर नवाने लगे । प्रभु को पहचानकर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे ॥ ७ ॥
उपजा ग्यान बचन तब बोला । नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ॥
सुख संपति परिवार बड़ाई । सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ॥ ८ ॥
जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गया । सुख, संपत्ति, परिवार और बड़ाई (बड़प्पन) सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूँगा ॥ ८ ॥
ए सब राम भगति के बाधक । कहहिं संत तव पद अवराधक ॥
सत्रु मित्र सुख, दुख जग माहीं । मायाकृत परमारथ नाहीं ॥ ९ ॥
क्योंकि आपके चरणों की आराधना करने वाले संत कहते हैं कि ये सब (सुख-संपत्ति आदि) राम भक्ति के विरोधी हैं । जगत् में जितने भी शत्रु-मित्र और सुख-दुःख (आदि द्वंद्व) हैं, सब के सब मायारचित हैं, परमार्थतः (वास्तव में) नहीं हैं ॥ ९ ॥
बालि परम हित जासु प्रसादा । मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ॥
सपनें जेहि सन होइ लराई । जागें समुझत मन सकुचाई ॥ १० ॥
हे श्री रामजी! बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मुझे मिले और जिसके साथ अब स्वप्न में भी लड़ाई हो तो जागने पर उसे समझकर मन में संकोच होगा (कि स्वप्न में भी मैं उससे क्यों लड़ा) ॥ १० ॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति । सब तजि भजनु करौं दिन राती ॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी । बोले बिहँसि रामु धनुपानी ॥ ११ ॥
हे प्रभो अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ । सुग्रीव की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर (उसके क्षणिक वैराग्य को देखकर) हाथ में धनुष धारण करने वाले श्री रामजी मुस्कुराकर बोले - ॥ ११ ॥
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई । सखा बचन मम मृषा न होई ॥
नट मरकट इव सबहि नचावत । रामु खगेस बेद अस गावत ॥ १२ ॥
तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य है, परंतु हे सखा! मेरा वचन मिथ्या नहीं होता (अर्थात् बालि मारा जाएगा और तुम्हें राज्य मिलेगा) । (काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि - ) हे पक्षियों के राजा गरुड़! नट (मदारी) के बंदर की तरह श्री रामजी सबको नचाते हैं, वेद ऐसा कहते हैं ॥ १२ ॥
लै सुग्रीव संग रघुनाथा । चले चाप सायक गहि हाथा ॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा । गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ॥ १३ ॥
तदनन्तर सुग्रीव को साथ लेकर और हाथों में धनुष-बाण धारण करके श्री रघुनाथजी चले । तब श्री रघुनाथजी ने सुग्रीव को बालि के पास भेजा । वह श्री रामजी का बल पाकर बालि के निकट जाकर गरजा ॥ १३ ॥
सुनत बालि क्रोधातुर धावा । गहि कर चरन नारि समुझावा ॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा । ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा ॥ १४ ॥
बालि सुनते ही क्रोध में भरकर वेग से दौड़ा । उसकी स्त्री तारा ने चरण पकड़कर उसे समझाया कि हे नाथ! सुनिए, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा हैं ॥ १४ ॥
कोसलेस सुत लछिमन रामा । कालहु जीति सकहिं संग्रामा ॥ १५ ॥
वे कोसलाधीश दशरथजी के पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राम में काल को भी जीत सकते हैं ॥ १५ ॥