चौपाई :

भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू । भरत भूमिसुर तेरहुति राजू ॥
भल दिन आजु जानि मन माहीं । रामु कृपाल कहत सकुचाहीं ॥ १ ॥

(अगले छठे दिन) सबेरे स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा । आज सबको विदा करने के लिए अच्छा दिन है, यह मन में जानकर भी कृपालु श्री रामजी कहने में सकुचा रहे हैं ॥ १ ॥

गुर नृप भरत सभा अवलोकी । सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी ॥
सील सराहि सभा सब सोची । कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची ॥ २ ॥

श्री रामचन्द्रजी ने गुरु वशिष्ठजी, राजा जनकजी, भरतजी और सारी सभा की ओर देखा, किन्तु फिर सकुचाकर दृष्टि फेरकर वे पृथ्वी की ओर ताकने लगे । सभा उनके शील की सराहना करके सोचती है कि श्री रामचन्द्रजी के समान संकोची स्वामी कहीं नहीं है ॥ २ ॥

भरत सुजान राम रुख देखी । उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी ॥
करि दंडवत कहत कर जोरी । राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ॥ ३ ॥

सुजान भरतजी श्री रामचन्द्रजी का रुख देखकर प्रेमपूर्वक उठकर, विशेष रूप से धीरज धारण कर दण्डवत करके हाथ जोड़कर कहने लगे- हे नाथ! आपने मेरी सभी रुचियाँ रखीं ॥ ३ ॥

मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू । बहुत भाँति दुखु पावा आपू ॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई । सेवौं अवध अवधि भरि जाई ॥ ४ ॥

मेरे लिए सब लोगों ने संताप सहा और आपने भी बहुत प्रकार से दुःख पाया । अब स्वामी मुझे आज्ञा दें । मैं जाकर अवधि भर (चौदह वर्ष तक) अवध का सेवन करूँ ॥ ४ ॥

दोहा :

जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल ।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ॥ ३१३ ॥

हे दीनदयालु! जिस उपाय से यह दास फिर चरणों का दर्शन करे- हे कोसलाधीश! हे कृपालु! अवधिभर के लिए मुझे वही शिक्षा दीजिए ॥ ३१३ ॥

चौपाई :

पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं । सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं ॥
राउर बदि भल भव दुख दाहू । प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू ॥ १ ॥

हे गोसाईं! आपके प्रेम और संबंध में अवधपुर वासी, कुटुम्बी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनंद) से युक्त हैं । आपके लिए भवदुःख (जन्म-मरण के दुःख) की ज्वाला में जलना भी अच्छा है और प्रभु (आप) के बिना परमपद (मोक्ष) का लाभ भी व्यर्थ है ॥ १ ॥

स्वामि सुजानु जानि सब ही की । रुचि लालसा रहनि जन जी की ॥
प्रनतपालु पालिहि सब काहू । देउ दुहू दिसि ओर निबाहू ॥ २ ॥

हे स्वामी! आप सुजान हैं, सभी के हृदय की और मुझ सेवक के मन की रुचि, लालसा (अभिलाषा) और रहनी जानकर, हे प्रणतपाल! आप सब किसी का पालन करेंगे और हे देव! दोनों ओर अन्त तक निबाहेंगे ॥ २ ॥

अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो । किएँ बिचारु न सोचु खरो सो ॥
आरति मोर नाथ कर छोहू । दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू ॥ ३ ॥

मुझे सब प्रकार से ऐसा बहुत बड़ा भरोसा है । विचार करने पर तिनके के बराबर (जरा सा) भी सोच नहीं रह जाता! मेरी दीनता और स्वामी का स्नेह दोनों ने मिलकर मुझे जबर्दस्ती ढीठ बना दिया है ॥ ३ ॥

यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी । तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ॥
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी । खीर नीर बिबरन गति हंसी ॥ ४ ॥

हे स्वामी! इस बड़े दोष को दूर करके संकोच त्याग कर मुझ सेवक को शिक्षा दीजिए । दूध और जल को अलग-अलग करने में हंसिनी की सी गति वाली भरतजी की विनती सुनकर उसकी सभी ने प्रशंसा की ॥ ४ ॥

दोहा :

दीनबंधु सुनि बंधु के वचन दीन छलहीन ।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन ॥ ३१४ ॥

दीनबन्धु और परम चतुर श्री रामजी ने भाई भरतजी के दीन और छलरहित वचन सुनकर देश, काल और अवसर के अनुकूल वचन बोले - ॥ ३१४ ॥

चौपाई :

तात तुम्हारि मोरि परिजन की । चिंता गुरहि नृपहि घर बन की ॥
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू । हमहि तुम्हहि सपनेहूँ न कलेसू ॥ १ ॥

हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की और वन की सारी चिंता गुरु वशिष्ठजी और महाराज जनकजी को है । हमारे सिर पर जब गुरुजी, मुनि विश्वामित्रजी और मिथिलापति जनकजी हैं, तब हमें और तुम्हें स्वप्न नें भी क्लेश नहीं है ॥ १ ॥

मोर तुम्हार परम पुरुषारथु । स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु ॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाईं । लोक बेद भल भूप भलाईं ॥ २ ॥

मेरा और तुम्हारा तो परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ इसी में है कि हम दोनों भाई पिताजी की आज्ञा का पालन करें । राजा की भलाई (उनके व्रत की रक्षा) से ही लोक और वेद दोनों में भला है ॥ २ ॥

गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ॥
अस बिचारि सब सोच बिहाई । पालहु अवध अवधि भरि जाई ॥ ३ ॥

गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा (आज्ञा) का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने पर पैर गड्ढे में नहीं पड़ता (पतन नहीं होता) । ऐसा विचार कर सब सोच छोड़कर अवध जाकर अवधिभर उसका पालन करो ॥ ३ ॥

देसु कोसु परिजन परिवारू । गुर पद रजहिं लाग छरुभारू ॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी । पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी ॥ ४ ॥

देश, खजाना, कुटुम्ब, परिवार आदि सबकी जिम्मेदारी तो गुरुजी की चरण रज पर है । तुम तो मुनि वशिष्ठजी, माताओं और मन्त्रियों की शिक्षा मानकर तदनुसार पृथ्वी, प्रजा और राजधानी का पालन (रक्षा) भर करते रहना ॥ ४ ॥

दोहा :

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ॥ ३१५ ॥

तुलसीदासजी कहते हैं - (श्री रामजी ने कहा - ) मुखिया मुख के समान होना चाहिए, जो खाने-पीने को तो एक (अकेला) है, परन्तु विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है ॥ ३१५ ॥

चौपाई :

राजधरम सरबसु एतनोई । जिमि मन माहँ मनोरथ गोई ॥
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती । बिनु अधार मन तोषु न साँती ॥ १ ॥

राजधर्म का सर्वस्व (सार) भी इतना ही है । जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है । श्री रघुनाथजी ने भाई भरत को बहुत प्रकार से समझाया, परन्तु कोई अवलम्बन पाए बिना उनके मन में न संतोष हुआ, न शान्ति ॥ १ ॥

भरत सील गुर सचिव समाजू । सकुच सनेह बिबस रघुराजू ॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं । सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥ २ ॥

इधर तो भरतजी का शील (प्रेम) और उधर गुरुजनों, मंत्रियों तथा समाज की उपस्थिति! यह देखकर श्री रघुनाथजी संकोच तथा स्नेह के विशेष वशीभूत हो गए (अर्थात भरतजी के प्रेमवश उन्हें पाँवरी देना चाहते हैं, किन्तु साथ ही गुरु आदि का संकोच भी होता है । ) आखिर (भरतजी के प्रेमवश) प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने कृपा कर खड़ाऊँ दे दीं और भरतजी ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण कर लिया ॥ २ ॥

चरनपीठ करुनानिधान के । जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ॥
संपुट भरत सनेह रतन के । आखर जुग जनु जीव जतन के ॥ ३ ॥

करुणानिधान श्री रामचंद्रजी के दोनों ख़ड़ाऊँ प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार हैं । भरतजी के प्रेमरूपी रत्न के लिए मानो डिब्बा है और जीव के साधन के लिए मानो राम-नाम के दो अक्षर हैं ॥ ३ ॥

कुल कपाट कर कुसल करम के । बिमल नयन सेवा सुधरम के ॥
भरत मुदित अवलंब लहे तें । अस सुख जस सिय रामु रहे तें ॥ ४ ॥

रघुकुल (की रक्षा) के लिए दो किवाड़ हैं । कुशल (श्रेष्ठ) कर्म करने के लिए दो हाथ की भाँति (सहायक) हैं और सेवा रूपी श्रेष्ठ धर्म के सुझाने के लिए निर्मल नेत्र हैं । भरतजी इस अवलंब के मिल जाने से परम आनंदित हैं । उन्हें ऐसा ही सुख हुआ, जैसा श्री सीता-रामजी के रहने से होता है ॥ ४ ॥

दोहा :

मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ ॥ ३१६ ॥

भरतजी ने प्रणाम करके विदा माँगी, तब श्री रामचंद्रजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया । इधर कुटिल इंद्र ने बुरा मौका पाकर लोगों का उच्चाटन कर दिया ॥ ३१६ ॥

चौपाई :

सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी । अवधि आस सम जीवनि जी की ॥
नतरु लखन सिय राम बियोगा । हहरि मरत सब लोग कुरोगा ॥ १ ॥

वह कुचाल भी सबके लिए हितकर हो गई । अवधि की आशा के समान ही वह जीवन के लिए संजीवनी हो गई । नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्ष्मणजी, सीताजी और श्री रामचंद्रजी के वियोग रूपी बुरे रोग से सब लोग घबड़ाकर (हाय-हाय करके) मर ही जाते ॥ १ ॥

रामकृपाँ अवरेब सुधारी । बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी ॥
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो । राम प्रेम रसु न कहि न परत सो ॥ २ ॥

श्री रामजी की कृपा ने सारी उलझन सुधार दी । देवताओं की सेना जो लूटने आई थी, वही गुणदायक (हितकरी) और रक्षक बन गई । श्री रामजी भुजाओं में भरकर भाई भरत से मिल रहे हैं । श्री रामजी के प्रेम का वह रस (आनंद) कहते नहीं बनता ॥ २ ॥

तन मन बचन उमग अनुरागा । धीर धुरंधर धीरजु त्यागा ॥
बारिज लोचन मोचत बारी । देखि दसा सुर सभा दुखारी ॥ ३ ॥

तन, मन और वचन तीनों में प्रेम उमड़ पड़ा । धीरज की धुरी को धारण करने वाले श्री रघुनाथजी ने भी धीरज त्याग दिया । वे कमल सदृश नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहाने लगे । उनकी यह दशा देखकर देवताओं की सभा (समाज) दुःखी हो गई ॥ ३ ॥

मुनिगन गुर धुर धीर जनक से । ग्यान अनल मन कसें कनक से ॥
जे बिरंचि निरलेप उपाए । पदुम पत्र जिमि जग जल जाए ॥ ४ ॥

मुनिगण, गुरु वशिष्ठजी और जनकजी सरीखे धीरधुरन्धर जो अपने मनों को ज्ञान रूपी अग्नि में सोने के समान कस चुके थे, जिनको ब्रह्माजी ने निर्लेप ही रचा और जो जगत् रूपी जल में कमल के पत्ते की तरह ही (जगत् में रहते हुए भी जगत् से अनासक्त) पैदा हुए ॥ ४ ॥

दोहा :

तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार ।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार ॥ ३१७ ॥

वे भी श्री रामजी और भरतजी के उपमारहित अपार प्रेम को देखकर वैराग्य और विवेक सहित तन, मन, वचन से उस प्रेम में मग्न हो गए ॥ ३१७ ॥

चौपाई :

जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी । प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी ॥
बरनत रघुबर भरत बियोगू । सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू ॥ १ ॥

जहाँ जनकजी और गुरु वशिष्ठजी की बुद्धि की गति कुण्ठित हो, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बड़ा दोष है । श्री रामचंद्रजी और भरतजी के वियोग का वर्णन करते सुनकर लोग कवि को कठोर हृदय समझेंगे ॥ १ ॥

सो सकोच रसु अकथ सुबानी । समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी ॥
भेंटि भरतु रघुबर समुझाए । पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए ॥ २ ॥

वह संकोच रस अकथनीय है । अतएव कवि की सुंदर वाणी उस समय उसके प्रेम को स्मरण करके सकुचा गई । भरतजी को भेंट कर श्री रघुनाथजी ने उनको समझाया । फिर हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगा लिया ॥ २ ॥

सेवक सचिव भरत रुख पाई । निज निज काज लगे सब जाई ॥
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा । लगे चलन के साजन साजा ॥ ३ ॥

सेवक और मंत्री भरतजी का रुख पाकर सब अपने-अपने काम में जा लगे । यह सुनकर दोनों समाजों में दारुण दुःख छा गया । वे चलने की तैयारियाँ करने लगे ॥ ३ ॥

प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई । चले सीस धरि राम रजाई ॥
मुनि तापस बनदेव निहोरी । सब सनमानि बहोरि बहोरी ॥ ४ ॥

प्रभु के चरणकमलों की वंदना करके तथा श्री रामजी की आज्ञा को सिर पर रखकर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले । मुनि, तपस्वी और वनदेवता सबका बार-बार सम्मान करके उनकी विनती की ॥ ४ ॥

दोहा :

लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि ।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि ॥ ३१८ ॥

फिर लक्ष्मणजी को क्रमशः भेंटकर तथा प्रणाम करके और सीताजी के चरणों की धूलि को सिर पर धारण करके और समस्त मंगलों के मूल आशीर्वाद सुनकर वे प्रेमसहित चले ॥ ३१८ ॥

चौपाई :

सानुज राम नृपहि सिर नाई । कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई ॥
देव दया बस बड़ दुखु पायउ । सहित समाज काननहिं आयउ ॥ १ ॥

छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत श्री रामजी ने राजा जनकजी को सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकार से विनती और बड़ाई की (और कहा - ) हे देव! दयावश आपने बहुत दुःख पाया । आप समाज सहित वन में आए ॥ १ ॥

पुर पगु धारिअ देइ असीसा । कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा ॥
मुनि महिदेव साधु सनमाने । बिदा किए हरि हर सम जाने ॥ २ ॥

अब आशीर्वाद देकर नगर को पधारिए । यह सुन राजा जनकजी ने धीरज धरकर गमन किया । फिर श्री रामचंद्रजी ने मुनि, ब्राह्मण और साधुओं को विष्णु और शिव के समान जानकर सम्मान करके उनको विदा किया ॥ २ ॥

सासु समीप गए दोउ भाई । फिरे बंदि पग आसिष पाई ॥
कौसिक बामदेव जाबाली । पुरजन परिजन सचिव सुचाली ॥ ३ ॥

तब श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाई सास (सुनयनाजी) के पास गए और उनके चरणों की वंदना करके आशीर्वाद पाकर लौट आए । फिर विश्वामित्र, वामदेव, जाबालि और शुभ आचरण वाले कुटुम्बी, नगर निवासी और मंत्री- ॥ ३ ॥

जथा जोगु करि बिनय प्रनामा । बिदा किए सब सानुज रामा ॥
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे । सब सनमानि कृपानिधि फेरे ॥ ४ ॥

सबको छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित श्री रामचंद्रजी ने यथायोग्य विनय एवं प्रणाम करके विदा किया । कृपानिधान श्री रामचंद्रजी ने छोटे, मध्यम (मझले) और बड़े सभी श्रेणी के स्त्री-पुरुषों का सम्मान करके उनको लौटाया ॥ ४ ॥

दोहा :

भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि ।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि ॥ ३१९ ॥

भरत की माता कैकेयी के चरणों की वंदना करके प्रभु श्री रामचंद्रजी ने पवित्र (निश्छल) प्रेम के साथ उनसे मिल-भेंट कर तथा उनके सारे संकोच और सोच को मिटाकर पालकी सजाकर उनको विदा किया ॥ ३१९ ॥

चौपाई :

परिजन मातु पितहि मिलि सीता । फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता ॥
करि प्रनामु भेंटीं सब सासू । प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू ॥ १ ॥

प्राणप्रिय पति श्री रामचंद्रजी के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नैहर के कुटुम्बियों से तथा माता-पिता से मिलकर लौट आईं । फिर प्रणाम करके सब सासुओं से गले लगकर मिलीं । उनके प्रेम का वर्णन करने के लिए कवि के हृदय में हुलास (उत्साह) नहीं होता ॥ १ ॥

सुनि सिख अभिमत आसिष पाई । रही सीय दुहु प्रीति समाई ॥
रघुपति पटु पालकीं मगाईं । करि प्रबोध सब मातु चढ़ाईं ॥ २ ॥

उनकी शिक्षा सुनकर और मनचाहा आशीर्वाद पाकर सीताजी सासुओं तथा माता-पिता दोनों ओर की प्रीति में समाई (बहुत देर तक निमग्न) रहीं! (तब) श्री रघुनाथजी ने सुंदर पालकियाँ मँगवाईं और सब माताओं को आश्वासन देकर उन पर चढ़ाया ॥ २ ॥

बार बार हिलि मिलि दुहु भाईं । सम सनेहँ जननीं पहुँचाईं ॥
साजि बाजि गज बाहन नाना । भरत भूप दल कीन्ह पयाना ॥ ३ ॥

दोनों भाइयों ने माताओं से समान प्रेम से बार-बार मिल-जुलकर उनको पहुँचाया । भरतजी और राजा जनकजी के दलों ने घोड़े, हाथी और अनेकों तरह की सवारियाँ सजाकर प्रस्थान किया ॥ ३ ॥

हृदयँ रामु सिय लखन समेता । चले जाहिं सब लोग अचेता ॥
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें । चले जाहिं परबस मन मारें ॥ ४ ॥

सीताजी एवं लक्ष्मणजी सहित श्री रामचंद्रजी को हृदय में रखकर सब लोग बेसुध हुए चले जा रहे हैं । बैल-घोड़े, हाथी आदि पशु हृदय में हारे (शिथिल) हुए परवश मन मारे चले जा रहे हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत ।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत ॥ ३२० ॥

गुरु वशिष्ठजी और गुरु पत्नी अरुन्धतीजी के चरणों की वंदना करके सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी हर्ष और विषाद के साथ लौटकर पर्णकुटी पर आए ॥ ३२० ॥

चौपाई :

बिदा कीन्ह सनमानि निषादू । चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू ॥
कोल किरात भिल्ल बनचारी । फेरे फिरे जोहारि जोहारी ॥ १ ॥

फिर सम्मान करके निषादराज को विदा किया । वह चला तो सही, किन्तु उसके हृदय में विरह का भारी विषाद था । फिर श्री रामजी ने कोल, किरात, भील आदि वनवासी लोगों को लौटाया । वे सब जोहार-जोहार कर (वंदना कर-करके) लौटे ॥ १ ॥

प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं । प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं ॥
भरत सनेह सुभाउ सुबानी । प्रिया अनुज सन कहत बखानी ॥ २ ॥

प्रभु श्री रामचंद्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी बड़ की छाया में बैठकर प्रियजन एवं परिवार के वियोग से दुःखी हो रहे हैं । भरतजी के स्नेह, स्वभाव और सुंदर वाणी को बखान-बखान कर वे प्रिय पत्नी सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी से कहने लगे ॥ २ ॥

प्रीति प्रतीति बचन मन करनी । श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी ॥
तेहि अवसर खम मृग जल मीना । चित्रकूट चर अचर मलीना ॥ ३ ॥

श्री रामचंद्रजी ने प्रेम के वश होकर भरतजी के वचन, मन, कर्म की प्रीति तथा विश्वास का अपने श्रीमुख से वर्णन किया । उस समय पक्षी, पशु और जल की मछलियाँ, चित्रकूट के सभी चेतन और जड़ जीव उदास हो गए ॥ ३ ॥

बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की । बरषि सुमन कहि गति घर घर की ॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो । चले मुदित मन डर न खरो सो ॥ ४ ॥

श्री रघुनाथजी की दशा देखकर देवताओं ने उन पर फूल बरसाकर अपनी घर-घर की दशा कही (दुखड़ा सुनाया) । प्रभु श्री रामचंद्रजी ने उन्हें प्रणाम कर आश्वासन दिया । तब वे प्रसन्न होकर चले, मन में जरा सा भी डर न रहा ॥ ४ ॥