दोहा :
ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल ।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल ॥ २९१ ॥
हे राजन्! तुम ज्ञान के भंडार, सुजान, पवित्र और धर्म में धीर हो । इस समय तुम्हारे बिना इस दुविधा को दूर करने में और कौन समर्थ है? ॥ २९१ ॥
चौपाई :
सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे । लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे ॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं । आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं ॥ १ ॥
मुनि वशिष्ठजी के वचन सुनकर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए । उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य को भी वैराग्य हो गया (अर्थात उनके ज्ञान-वैराग्य छूट से गए) । वे प्रेम से शिथिल हो गए और मन में विचार करने लगे कि हम यहाँ आए, यह अच्छा नहीं किया ॥ १ ॥
रामहि रायँ कहेउ बन जाना । कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना ॥
हम अब बन तें बनहि पठाई । प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई ॥ २ ॥
राजा दशरथजी ने श्री रामजी को वन जाने के लिए कहा और स्वयं अपने प्रिय के प्रेम को प्रमाणित (सच्चा) कर दिया (प्रिय वियोग में प्राण त्याग दिए), परन्तु हम अब इन्हें वन से (और गहन) वन को भेजकर अपने विवेक की बड़ाई में आनन्दित होते हुए लौटेंगे (कि हमें जरा भी मोह नहीं है, हम श्री रामजी को वन में छोड़कर चले आए, दशरथजी की तरह मरे नहीं!) ॥ २ ॥
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी । भए प्रेम बस बिकल बिसेषी ॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा । चले भरत पहिं सहित समाजा ॥ ३ ॥
तपस्वी, मुनि और ब्राह्मण यह सब सुन और देखकर प्रेमवश बहुत ही व्याकुल हो गए । समय का विचार करके राजा जनकजी धीरज धरकर समाज सहित भरतजी के पास चले ॥ ३ ॥
भरत आइ आगें भइ लीन्हे । अवसर सरिस सुआसन दीन्हे ॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ । तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ ॥ ४ ॥
भरतजी ने आकर उन्हें आगे होकर लिया (सामने आकर उनका स्वागत किया) और समयानुकूल अच्छे आसन दिए । तिरहुतराज जनकजी कहने लगे- हे तात भरत! तुमको श्री रामजी का स्वभाव मालूम ही है ॥ ४ ॥
दोहा :
राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु स्नेहु ।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥ २९२ ॥
श्री रामचन्द्रजी सत्यव्रती और धर्मपरायण हैं, सबका शील और स्नेह रखने वाले हैं, इसीलिए वे संकोचवश संकट सह रहे हैं, अब तुम जो आज्ञा दो, वह उनसे कही जाए ॥ २९२ ॥
चौपाई :
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी । बोले भरतु धीर धरि भारी ॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू । कुलगुरु सम हित माय न बापू ॥ १ ॥
भरतजी यह सुनकर पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले - हे प्रभो! आप हमारे पिता के समान प्रिय और पूज्य हैं और कुल गुरु श्री वशिष्ठजी के समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं है ॥ १ ॥
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू । ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू ॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी । जानि मोहि सिख देइअ स्वामी ॥ २ ॥
विश्वामित्रजी आदि मुनियों और मंत्रियों का समाज है और आज के दिन ज्ञान के समुद्र आप भी उपस्थित हैं । हे स्वामी! मुझे अपना बच्चा, सेवक और आज्ञानुसार चलने वाला समझकर शिक्षा दीजिए ॥ २ ॥
एहिं समाज थल बूझब राउर । मौन मलिन मैं बोलब बाउर ॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता । छमब तात लखि बाम बिधाता ॥ ३ ॥
इस समाज और (पुण्य) स्थल में आप (जैसे ज्ञानी और पूज्य) का पूछना! इस पर यदि मैं मौन रहता हूँ तो मलिन समझा जाऊँगा और बोलना पागलपन होगा तथापि मैं छोटे मुँह बड़ी बात कहता हूँ । हे तात! विधाता को प्रतिकूल जानकर क्षमा कीजिएगा ॥ ३ ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । सेवाधरमु कठिन जगु जाना ॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू । बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू ॥ ४ ॥
वेद, शास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि सेवा धर्म बड़ा कठिन है । स्वामी धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में) और स्वार्थ में विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता (मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनों में ही भूल होने का भय है) ॥ ४ ॥
दोहा :
राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि ।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ प्रेमु पहिचानि ॥ २९३ ॥
अतएव मुझे पराधीन जानकर (मुझसे न पूछकर) श्री रामचन्द्रजी के रुख (रुचि), धर्म और (सत्य के) व्रत को रखते हुए, जो सबके सम्मत और सबके लिए हितकारी हो आप सबका प्रेम पहचानकर वही कीजिए ॥ २९३ ॥
चौपाई :
भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ । सहित समाज सराहत राऊ ॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे । अरथु अमित अति आखर थोरे ॥ १ ॥
भरतजी के वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे । भरतजी के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोमल और कठोर हैं । उनमें अक्षर थोड़े हैं, परन्तु अर्थ अत्यन्त अपार भरा हुआ है ॥ १ ॥
ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥
भूप भरतू मुनि सहित समाजू । गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू ॥ २ ॥
जैसे मुख (का प्रतिबिम्ब) दर्पण में दिखता है और दर्पण अपने हाथ में है, फिर भी वह (मुख का प्रतिबिम्ब) पकड़ा नहीं जाता, इसी प्रकार भरतजी की यह अद्भुत वाणी भी पकड़ में नहीं आती (शब्दों से उसका आशय समझ में नहीं आता) । (किसी से कुछ उत्तर देते नहीं बना) तब राजा जनकजी, भरतजी तथा मुनि वशिष्ठजी समाज के साथ वहाँ गए, जहाँ देवता रूपी कुमुदों को खिलाने वाले (सुख देने वाले) चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी थे ॥ २ ॥
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा । मनहुँ मीनगन नव जल जोगा ॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी । निरखि बिदेह सनेह बिसेषी ॥ ३ ॥
यह समाचार सुनकर सब लोग सोच से व्याकुल हो गए, जैसे नए (पहली वर्षा के) जल के संयोग से मछलियाँ व्याकुल होती हैं । देवताओं ने पहले कुलगुरु वशिष्ठजी की (प्रेमविह्वल) दशा देखी, फिर विदेहजी के विशेष स्नेह को देखा, ॥ ३ ॥
राम भगतिमय भरतु निहारे । सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे ॥
सब कोउ राम प्रेममय पेखा । भए अलेख सोच बस लेखा ॥ ४ ॥
और तब श्री रामभक्ति से ओतप्रोत भरतजी को देखा । इन सबको देखकर स्वार्थी देवता घबड़ाकर हृदय में हार मान गए (निराश हो गए) । उन्होंने सब किसी को श्री राम प्रेम में सराबोर देखा । इससे देवता इतने सोच के वश हो गए कि जिसका कोई हिसाब नहीं ॥ ४ ॥
दोहा :
रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु ।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु ॥ २९४ ॥
देवराज इन्द्र सोच में भरकर कहने लगे कि श्री रामचन्द्रजी तो स्नेह और संकोच के वश में हैं, इसलिए सब लोग मिलकर कुछ प्रपंच (माया) रचो, नहीं तो काम बिगड़ा (ही समझो) ॥ २९४ ॥
चौपाई :
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही । देबि देव सरनागत पाही ॥
फेरि भरत मति करि निज माया । पालु बिबुध कुल करि छल छाया ॥ १ ॥
देवताओं ने सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा - हे देवी! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीजिए । अपनी माया रचकर भरतजी की बुद्धि को फेर दीजिए और छल की छाया कर देवताओं के कुल का पालन (रक्षा) कीजिए ॥ १ ॥
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी । बोली सुर स्वारथ जड़ जानी ॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू । लोचन सहस न सूझ सुमेरू ॥ २ ॥
देवताओं की विनती सुनकर और देवताओं को स्वार्थ के वश होने से मूर्ख जानकर बुद्धिमती सरस्वतीजी बोलीं - मुझसे कह रहे हो कि भरतजी की मति पलट दो! हजार नेत्रों से भी तुमको सुमेरू नहीं सूझ पड़ता! ॥ २ ॥
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी । सोउ न भरत मति सकइ निहारी ॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी । चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ॥ ३ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माया बड़ी प्रबल है! किन्तु वह भी भरतजी की बुद्धि की ओर ताक नहीं सकती । उस बुद्धि को, तुम मुझसे कह रहे हो कि, भोली कर दो (भुलावे में डाल दो)! अरे! चाँदनी कहीं प्रचंड किरण वाले सूर्य को चुरा सकती है? ॥ ३ ॥
भरत हृदयँ सिय राम निवासू । तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका । बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका ॥ ४ ॥
भरतजी के हृदय में श्री सीता-रामजी का निवास है । जहाँ सूर्य का प्रकाश है, वहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को चली गईं । देवता ऐसे व्याकुल हुए जैसे रात्रि में चकवा व्याकुल होता है ॥ ४ ॥
दोहा :
सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु ।
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु ॥ २९५ ॥
मलिन मन वाले स्वार्थी देवताओं ने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यन्त्र) रचा । प्रबल माया-जाल रचकर भय, भ्रम, अप्रीति और उच्चाटन फैला दिया ॥ २९५ ॥
चौपाई :
करि कुचालि सोचत सुरराजू । भरत हाथ सबु काजु अकाजू ॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा । सनमाने सब रबिकुल दीपा ॥ १ ॥
कुचाल करके देवराज इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरतजी के हाथ है । इधर राजा जनकजी (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) श्री रघुनाथजी के पास गए । सूर्यकुल के दीपक श्री रामचन्द्रजी ने सबका सम्मान किया, ॥ १ ॥
समय समाज धरम अबिरोधा । बोले तब रघुबंस पुरोधा ॥
जनक भरत संबादु सुनाई । भरत कहाउति कही सुहाई ॥ २ ॥
तब रघुकुल के पुरोहित वशिष्ठजी समय, समाज और धर्म के अविरोधी (अर्थात अनुकूल) वचन बोले । उन्होंने पहले जनकजी और भरतजी का संवाद सुनाया । फिर भरतजी की कही हुई सुंदर बातें कह सुनाईं ॥ २ ॥
तात राम जस आयसु देहू । सो सबु करै मोर मत एहू ॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी । बोले सत्य सरल मृदु बानी ॥ ३ ॥
(फिर बोले - ) हे तात राम! मेरा मत तो यह है कि तुम जैसी आज्ञा दो, वैसा ही सब करें! यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर श्री रघुनाथजी सत्य, सरल और कोमल वाणी बोले - ॥ ३ ॥
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू । मोर कहब सब भाँति भदेसू ॥
राउर राय रजायसु होई । राउरि सपथ सही सिर सोई ॥ ४ ॥
आपके और मिथिलेश्वर जनकजी के विद्यमान रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा (अनुचित) है । आपकी और महाराज की जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ वह सत्य ही सबको शिरोधार्य होगी ॥ ४ ॥