दोहा :

एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु ।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु ॥ २८० ॥

सब लोग कह रहे हैं कि हम इस सुख के योग्य नहीं हैं, हमारे ऐसे भाग्य कहाँ? दोनों समाजों का श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सहज स्वभाव से ही प्रेम है ॥ २८० ॥

चौपाई :

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं । बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं ॥
सीय मातु तेहि समय पठाईं । दासीं देखि सुअवसरु आईं ॥ १ ॥

इस प्रकार सब मनोरथ कर रहे हैं । उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही (सुनने वालों के) मनों को हर लेते हैं । उसी समय सीताजी की माता श्री सुनयनाजी की भेजी हुई दासियाँ (कौसल्याजी आदि के मिलने का) सुंदर अवसर देखकर आईं ॥ १ ॥

सावकास सुनि सब सिय सासू । आयउ जनकराज रनिवासू ॥
कौसल्याँ सादर सनमानी । आसन दिए समय सम आनी ॥ २ ॥

उनसे यह सुनकर कि सीता की सब सासुएँ इस समय फुरसत में हैं, जनकराज का रनिवास उनसे मिलने आया । कौसल्याजी ने आदरपूर्वक उनका सम्मान किया और समयोचित आसन लाकर दिए ॥ २ ॥

सीलु सनेहु सकल दुहु ओरा । द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा ॥
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन । महि नख लिखन लगीं सब सोचन ॥ ३ ॥

दोनों ओर सबके शील और प्रेम को देखकर और सुनकर कठोर वज्र भी पिघल जाते हैं । शरीर पुलकित और शिथिल हैं और नेत्रों में (शोक और प्रेम के) आँसू हैं । सब अपने (पैरों के) नखों से जमीन कुरेदने और सोचने लगीं ॥ ३ ॥

सब सिय राम प्रीति की सि मूरति । जनु करुना बहु बेष बिसूरति ॥
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी । जो पय फेनु फोर पबि टाँकी ॥ ४ ॥

सभी श्री सीता-रामजी के प्रेम की मूर्ति सी हैं, मानो स्वयं करुणा ही बहुत से वेष (रूप) धारण करके विसूर रही हो (दुःख कर रही हो) । सीताजी की माता सुनयनाजी ने कहा - विधाता की बुद्धि बड़ी टेढ़ी है, जो दूध के फेन जैसी कोमल वस्तु को वज्र की टाँकी से फोड़ रहा है (अर्थात जो अत्यन्त कोमल और निर्दोष हैं उन पर विपत्ति पर विपत्ति ढहा रहा है) ॥ ४ ॥

दोहा :

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल ।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ॥ २८१ ॥

अमृत केवल सुनने में आता है और विष जहाँ-तहाँ प्रत्यक्ष देखे जाते हैं । विधाता की सभी करतूतें भयंकर हैं । जहाँ-तहाँ कौए, उल्लू और बगुले ही (दिखाई देते) हैं, हंस तो एक मानसरोवर में ही हैं ॥ २८१ ॥

चौपाई :

सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा । बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा ॥
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी । बालकेलि सम बिधि मति भोरी ॥ १ ॥

यह सुनकर देवी सुमित्राजी शोक के साथ कहने लगीं- विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टि को उत्पन्न करके पालता है और फिर नष्ट कर डालता है । विधाता की बुद्धि बालकों के खेल के समान भोली (विवेक शून्य) है ॥ १ ॥

कौसल्या कह दोसु न काहू । करम बिबस दुख सुख छति लाहू ॥
कठिन करम गति जान बिधाता । जो सुभ असुभ सकल फल दाता ॥ २ ॥

कौसल्याजी ने कहा - किसी का दोष नहीं है, दुःख-सुख, हानि-लाभ सब कर्म के अधीन हैं । कर्म की गति कठिन (दुर्विज्ञेय) है, उसे विधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी फलों का देने वाला है ॥ २ ॥

ईस रजाइ सीस सबही कें । उतपति थिति लय बिषहु अमी कें ॥
देबि मोह बस सोचिअ बादी । बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी ॥ ३ ॥

ईश्वर की आज्ञा सभी के सिर पर है । उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और लय (संहार) तथा अमृत और विष के भी सिर पर है (ये सब भी उसी के अधीन हैं) । हे देवि! मोहवश सोच करना व्यर्थ है । विधाता का प्रपंच ऐसा ही अचल और अनादि है ॥ ३ ॥

भूपति जिअब मरब उर आनी । सोचिअ सखि लखि निज हित हानी ॥
सीय मातु कह सत्य सुबानी । सुकृती अवधि अवधपति रानी ॥ ४ ॥

महाराज के मरने और जीने की बात को हृदय में याद करके जो चिन्ता करती हैं, वह तो हे सखी! हम अपने ही हित की हानि देखकर (स्वार्थवश) करती हैं । सीताजी की माता ने कहा - आपका कथन उत्तम है और सत्य है । आप पुण्यात्माओं के सीमा रूप अवधपति (महाराज दशरथजी) की ही तो रानी हैं । (फिर भला, ऐसा क्यों न कहेंगी) ॥ ४ ॥

दोहा :

लखनु रामु सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु ।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ॥ २८२ ॥

कौसल्याजी ने दुःख भरे हृदय से कहा - श्री राम, लक्ष्मण और सीता वन में जाएँ, इसका परिणाम तो अच्छा ही होगा, बुरा नहीं । मुझे तो भरत की चिन्ता है ॥ २८२ ॥

चौपाई :

ईस प्रसाद असीस तुम्हारी । सुत सुतबधू देवसरि बारी ॥
राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ । सो करि कहउँ सखी सति भाऊ ॥ १ ॥

ईश्वर के अनुग्रह और आपके आशीर्वाद से मेरे (चारों) पुत्र और (चारों) बहुएँ गंगाजी के जल के समान पवित्र हैं । हे सखी! मैंने कभी श्री राम की सौगंध नहीं की, सो आज श्री राम की शपथ करके सत्य भाव से कहती हूँ- ॥ १ ॥

भरत सील गुन बिनय बड़ाई । भायप भगति भरोस भलाई ॥
कहत सारदहु कर मति हीचे । सागर सीप कि जाहिं उलीचे ॥ २ ॥

भरत के शील, गुण, नम्रता, बड़प्पन, भाईपन, भक्ति, भरोसे और अच्छेपन का वर्णन करने में सरस्वतीजी की बुद्धि भी हिचकती है । सीप से कहीं समुद्र उलीचे जा सकते हैं? ॥ २ ॥

जानउँ सदा भरत कुलदीपा । बार बार मोहि कहेउ महीपा ॥
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ । पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ ॥ ३ ॥

मैं भरत को सदा कुल का दीपक जानती हूँ । महाराज ने भी बार-बार मुझे यही कहा था । सोना कसौटी पर कसे जाने पर और रत्न पारखी (जौहरी) के मिलने पर ही पहचाना जाता है । वैसे ही पुरुष की परीक्षा समय पड़ने पर उसके स्वभाव से ही (उसका चरित्र देखकर) हो जाती है ॥ ३ ॥

अनुचित आजु कहब अस मोरा । सोक सनेहँ सयानप थोरा ॥
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी । भईं सनेह बिकल सब रानी ॥ ४ ॥

किन्तु आज मेरा ऐसा कहना भी अनुचित है । शोक और स्नेह में सयानापन (विवेक) कम हो जाता है (लोग कहेंगे कि मैं स्नेहवश भरत की बड़ाई कर रही हूँ) । कौसल्याजी की गंगाजी के समान पवित्र करने वाली वाणी सुनकर सब रानियाँ स्नेह के मारे विकल हो उठीं ॥ ४ ॥

दोहा :

कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि ।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि ॥ २८३ ॥

कौसल्याजी ने फिर धीरज धरकर कहा - हे देवी मिथिलेश्वरी! सुनिए, ज्ञान के भंडार श्री जनकजी की प्रिया आपको कौन उपदेश दे सकता है? ॥ २८३ ॥

चौपाई :

रानि राय सन अवसरु पाई । अपनी भाँति कहब समुझाई ॥
रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन । जौं यह मत मानै महीप मन ॥ १ ॥

हे रानी! मौका पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहाँ तक हो सके समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाए और भरत वन को जाएँ । यदि यह राय राजा के मन में (ठीक) जँच जाए, ॥ १ ॥

तौ भल जतनु करब सुबिचारी । मोरें सोचु भरत कर भारी ॥
गूढ़ सनेह भरत मन माहीं । रहें नीक मोहि लागत नाहीं ॥ २ ॥

तो भलीभाँति खूब विचारकर ऐसा यत्न करें । मुझे भरत का अत्यधिक सोच है । भरत के मन में गूढ़ प्रेम है । उनके घर रहने में मुझे भलाई नहीं जान पड़ती (यह डर लगता है कि उनके प्राणों को कोई भय न हो जाए) ॥ २ ॥

लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी । सब भइ मगन करुन रस रानी ॥
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि । सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि ॥ ३ ॥

कौसल्याजी का स्वभाव देखकर और उनकी सरल और उत्तम वाणी को सुनकर सब रानियाँ करुण रस में निमग्न हो गईं । आकाश से पुष्प वर्षा की झड़ी लग गई और धन्य-धन्य की ध्वनि होने लगी । सिद्ध, योगी और मुनि स्नेह से शिथिल हो गए ॥ ३ ॥

सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ । तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ ॥
देबि दंड जुग जामिनि बीती । राम मातु सुनि उठी सप्रीती ॥ ४ ॥

सारा रनिवास देखकर थकित रह गया (निस्तब्ध हो गया), तब सुमित्राजी ने धीरज करके कहा कि हे देवी! दो घड़ी रात बीत गई है । यह सुनकर श्री रामजी की माता कौसल्याजी प्रेमपूर्वक उठीं- ॥ ४ ॥

दोहाथ बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय ।
हमरें तौ अब ईस गति कै मिथिलेस सहाय ॥ २८४ ॥

और प्रेम सहित सद्भाव से बोलीं - अब आप शीघ्र डेरे को पधारिए । हमारे तो अब ईश्वर ही गति हैं, अथवा मिथिलेश्वर जनकजी सहायक हैं ॥ २८४ ॥

चौपाई :

लखि सनेह सुनि बचन बिनीता । जनकप्रिया गह पाय पुनीता ॥
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी । दसरथ घरिनि राम महतारी ॥ १ ॥

कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए और कहा - हे देवी! आप राजा दशरथजी की रानी और श्री रामजी की माता हैं । आपकी ऐसी नम्रता उचित ही है ॥ १ ॥

प्रभु अपने नीचहु आदरहीं । अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं ॥
सेवकु राउ करम मन बानी । सदा सहाय महेसु भवानी ॥ २ ॥

प्रभु अपने निज जनों का भी आदर करते हैं । अग्नि धुएँ को और पर्वत तृण (घास) को अपने सिर पर धारण करते हैं । हमारे राजा तो कर्म, मन और वाणी से आपके सेवक हैं और सदा सहायक तो श्री महादेव-पार्वतीजी हैं ॥ २ ॥

रउरे अंग जोगु जग को है । दीप सहाय की दिनकर सोहै ॥
रामु जाइ बनु करि सुर काजू । अचल अवधपुर करिहहिं राजू ॥ ३ ॥

आपका सहायक होने योग्य जगत में कौन है? दीपक सूर्य की सहायता करने जाकर कहीं शोभा पा सकता है? श्री रामचन्द्रजी वन में जाकर देवताओं का कार्य करके अवधपुरी में अचल राज्य करेंगे ॥ ३ ॥

अमर नाग नर राम बाहुबल । सुख बसिहहिं अपनें अपनें थल ॥
यह सब जागबलिक कहि राखा । देबि न होइ मुधा मुनि भाषा ॥ ४ ॥

देवता, नाग और मनुष्य सब श्री रामचन्द्रजी की भुजाओं के बल पर अपने-अपने स्थानों (लोकों) में सुखपूर्वक बसेंगे । यह सब याज्ञवल्क्य मुनि ने पहले ही से कह रखा है । हे देवि! मुनि का कथन व्यर्थ (झूठा) नहीं हो सकता ॥ ४ ॥

दोहा :

अस कहि पग परि प्रेम अति सिय हित बिनय सुनाइ ।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ ॥ २८५ ॥

ऐसा कहकर बड़े प्रेम से पैरों पड़कर सीताजी (को साथ भेजने) के लिए विनती करके और सुंदर आज्ञा पाकर तब सीताजी समेत सीताजी की माता डेरे को चलीं ॥ २८५ ॥

चौपाई :

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही । जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही ॥
तापस बेष जानकी देखी । भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी ॥ १ ॥

जानकीजी अपने प्यारे कुटुम्बियों से- जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं । जानकीजी को तपस्विनी के वेष में देखकर सभी शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गए ॥ १ ॥

जनक राम गुर आयसु पाई । चले थलहि सिय देखी आई ॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी । पाहुनि पावन प्रेम प्रान की ॥ २ ॥

जनकजी श्री रामजी के गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर डेरे को चले और आकर उन्होंने सीताजी को देखा । जनकजी ने अपने पवित्र प्रेम और प्राणों की पाहुनी जानकीजी को हृदय से लगा लिया ॥ २ ॥

उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू । भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू ॥
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा । ता पर राम पेम सिसु सोहा ॥ ३ ॥

उनके हृदय में (वात्सल्य) प्रेम का समुद्र उमड़ पड़ा । राजा का मन मानो प्रयाग हो गया । उस समुद्र के अंदर उन्होंने (आदि शक्ति) सीताजी के (अलौकिक) स्नेह रूपी अक्षयवट को बढ़ते हुए देखा । उस (सीताजी के प्रेम रूपी वट) पर श्री रामजी का प्रेम रूपी बालक (बाल रूप धारी भगवान) सुशोभित हो रहा है ॥ ३ ॥

चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु । बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु ॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की । महिमा सिय रघुबर सनेह की ॥ ४ ॥

जनकजी का ज्ञान रूपी चिरंजीवी (मार्कण्डेय) मुनि व्याकुल होकर डूबते-डूबते मानो उस श्री राम प्रेम रूपी बालक का सहारा पाकर बच गया । वस्तुतः (ज्ञानिशिरोमणि) विदेहराज की बुद्धि मोह में मग्न नहीं है । यह तो श्री सीता-रामजी के प्रेम की महिमा है (जिसने उन जैसे महान ज्ञानी के ज्ञान को भी विकल कर दिया) ॥ ४ ॥

दोहा :

सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि ।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि ॥ २८६ ॥

पिता-माता के प्रेम के मारे सीताजी ऐसी विकल हो गईं कि अपने को सँभाल न सकीं । (परन्तु परम धैर्यवती) पृथ्वी की कन्या सीताजी ने समय और सुंदर धर्म का विचार कर धैर्य धारण किया ॥ २८६ ॥

चौपाई :

तापस बेष जनक सिय देखी । भयउ पेमु परितोषु बिसेषी ॥
पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ । सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ॥ १ ॥

सीताजी को तपस्विनी वेष में देखकर जनकजी को विशेष प्रेम और संतोष हुआ । (उन्होंने कहा - ) बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र कर दिए । तेरे निर्मल यश से सारा जगत उज्ज्वल हो रहा है, ऐसा सब कोई कहते हैं ॥ १ ॥

जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी । गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी ॥
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे । एहिं किए साधु समाज घनेरे ॥ २ ॥

तेरी कीर्ति रूपी नदी देवनदी गंगाजी को भी जीतकर (जो एक ही ब्रह्माण्ड में बहती है) करोड़ों ब्रह्माण्डों में बह चली है । गंगाजी ने तो पृथ्वी पर तीन ही स्थानों (हरिद्वार, प्रयागराज और गंगासागर) को बड़ा (तीर्थ) बनाया है । पर तेरी इस कीर्ति नदी ने तो अनेकों संत समाज रूपी तीर्थ स्थान बना दिए हैं ॥ २ ॥

पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी । सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी ॥
पुनि पितु मातु लीन्हि उर लाई । सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई ॥ ३ ॥

पिता जनकजी ने तो स्नेह से सच्ची सुंदर वाणी कही, परन्तु अपनी बड़ाई सुनकर सीताजी मानो संकोच में समा गईं । पिता-माता ने उन्हें फिर हृदय से लगा लिया और हितभरी सुंदर सीख और आशीष दिया ॥ ३ ॥

कहति न सीय सकुचि मन माहीं । इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं ॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ । हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ ॥ ४ ॥

सीताजी कुछ कहती नहीं हैं, परन्तु सकुचा रही हैं कि रात में (सासुओं की सेवा छोड़कर) यहाँ रहना अच्छा नहीं है । रानी सुनयनाजी ने जानकीजी का रुख देखकर (उनके मन की बात समझकर) राजा जनकजी को जना दिया । तब दोनों अपने हृदयों में सीताजी के शील और स्वभाव की सराहना करने लगे ॥ ४ ॥