दोहा :
सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग ।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ॥ २४९ ॥
तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं ॥ २४९ ॥
चौपाई :
कोल किरात भिल्ल बनबासी । मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी ॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी । कंद मूल फल अंकुर जूरी ॥ १ ॥
कोल, किरात और भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुंदर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कंद, मूल, फल और अंकुर आदि की जूड़ियों (अँटियों) को ॥ १ ॥
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा । कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं । फेरत राम दोहाई देहीं ॥ २ ॥
सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजों के अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम बता-बताकर देते हैं । लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा देने में श्री रामजी की दुहाई देते हैं ॥ २ ॥
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी । मानत साधु पेम पहिचानी ॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा । पावा दरसनु राम प्रसादा ॥ ३ ॥
प्रेम में मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिए, दाम देकर या वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिए) । आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं । श्री रामजी की कृपा से ही हमने आप लोगों के दर्शन पाए हैं ॥ ३ ॥
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा । जस मरु धरनि देवधुनि धारा ॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा । परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा ॥ ४ ॥
हम लोगों को आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिए गंगाजी की धारा दुर्लभ है! (देखिए) कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने निषाद पर कैसी कृपा की है । जैसे राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजा को भी होना चाहिए ॥ ४ ॥
दोहा :
यह जियँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु ।
हमहि कृतारथ करनलगि फल तृन अंकुर लेहु ॥ २५० ॥
हृदय में ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिए और हमको कृतार्थ करने के लिए ही फल, तृण और अंकुर लीजिए ॥ २५० ॥
चौपाई :
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे । सेवा जोगु न भाग हमारे ॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई । ईंधनु पात किरात मिताई ॥ १ ॥
आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं । आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं । हे स्वामी! हम आपको क्या देंगे? भीलों की मित्रता तो बस, ईंधन (लकड़ी) और पत्तों ही तक है ॥ १ ॥
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई । लेहिं न बासन बसन चोराई ॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती । कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ॥ २ ॥
हमारी तो यही बड़ी भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा लेते । हम लोग जड़ जीव हैं, जीवों की हिंसा करने वाले हैं, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति हैं ॥ २ ॥
पाप करत निसि बासर जाहीं । नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं ॥
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ । यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ॥ ३ ॥
हमारे दिन-रात पाप करते ही बीतते हैं । तो भी न तो हमारी कमर में कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं । हममें स्वप्न में भी कभी धर्मबुद्धि कैसी? यह सब तो श्री रघुनाथजी के दर्शन का प्रभाव है ॥ ३ ॥
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे । मिटे दुसह दुख दोष हमारे ॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे । तिन्ह के भाग सराहन लागे ॥ ४ ॥
जब से प्रभु के चरण कमल देखे, तब से हमारे दुःसह दुःख और दोष मिट गए । वनवासियों के वचन सुनकर अयोध्या के लोग प्रेम में भर गए और उनके भाग्य की सराहना करने लगे ॥ ४ ॥
छन्द :
लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं ॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा ।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा ॥
सब उनके भाग्य की सराहना करने लगे और प्रेम के वचन सुनाने लगे । उन लोगों के बोलने और मिलने का ढंग तथा श्री सीता-रामजी के चरणों में उनका प्रेम देखकर सब सुख पा रहे हैं । उन कोल-भीलों की वाणी सुनकर सभी नर-नारी अपने प्रेम का निरादर करते हैं (उसे धिक्कार देते हैं) । तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी की कृपा है कि लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर तैर गया ॥
सोरठा :
बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब ।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम ॥ २५१ ॥
सब लोग दिनोंदिन परम आनंदित होते हुए वन में चारों ओर विचरते हैं । जैसे पहली वर्षा के जल से मेंढक और मोर मोटे हो जाते हैं (प्रसन्न होकर नाचते-कूदते हैं) ॥ २५१ ॥
चौपाई :
पुर जन नारि मगन अति प्रीती । बासर जाहिं पलक सम बीती ॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई । सादर करइ सरिस सेवकाई ॥ १ ॥
अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त मग्न हो रहे हैं । उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं । जितनी सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीताजी सब सासुओं की आदरपूर्वक एक सी सेवा करती हैं ॥ १ ॥
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ । माया सब सिय माया माहूँ ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं । तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं ॥ २ ॥
श्री रामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना । सब मायाएँ (पराशक्ति महामाया) श्री सीताजी की माया में ही हैं । सीताजी ने सासुओं को सेवा से वश में कर लिया । उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिए ॥ २ ॥
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई । कुटिल रानि पछितानि अघाई ॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई । महि न बीचु बिधि मीचु न देई ॥ ३ ॥
सीताजी समेत दोनों भाइयों (श्री राम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछताई । वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है, किन्तु धरती बीच (फटकर समा जाने के लिए रास्ता) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता ॥ ३ ॥
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं । राम बिमुख थलु नरक न लहहीं ॥
यहु संसउ सब के मन माहीं । राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं ॥ ४ ॥
लोक और वेद में प्रसिद्ध है और कवि (ज्ञानी) भी कहते हैं कि जो श्री रामजी से विमुख हैं, उन्हें नरक में भी ठौर नहीं मिलती । सबके मन में यह संदेह हो रहा था कि हे विधाता! श्री रामचन्द्रजी का अयोध्या जाना होगा या नहीं ॥ ४ ॥
दोहा :
निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच ।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच ॥ २५२ ॥
भरतजी को न तो रात को नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है । वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़ में डूबी हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती है ॥ २५२ ॥
चौपाई :
कीन्हि मातु मिस काल कुचाली । ईति भीति जस पाकत साली ॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू । मोहि अवकलत उपाउ न एकू ॥ १ ॥
(भरतजी सोचते हैं कि) माता के मिस से काल ने कुचाल की है । जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो । अब श्री रामचन्द्रजी का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता ॥ १ ॥
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी । मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी ॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ । राम जननि हठ करबि कि काऊ ॥ २ ॥
गुरुजी की आज्ञा मानकर तो श्री रामजी अवश्य ही अयोध्या को लौट चलेंगे, परन्तु मुनि वशिष्ठजी तो श्री रामचन्द्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे । ( अर्थात वे श्री रामजी की रुचि देखे बिना जाने को नहीं कहेंगे) । माता कौसल्याजी के कहने से भी श्री रघुनाथजी लौट सकते हैं, पर भला, श्री रामजी को जन्म देने वाली माता क्या कभी हठ करेगी? ॥ २ ॥
मोहि अनुचर कर केतिक बाता । तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता ॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू । हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू ॥ ३ ॥
मुझ सेवक की तो बात ही कितनी है? उसमें भी समय खराब है (मेरे दिन अच्छे नहीं हैं) और विधाता प्रतिकूल है । यदि मैं हठ करता हूँ तो यह घोर कुकर्म (अधर्म) होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलास से भी भारी (निबाहने में कठिन) है ॥ ३ ॥
एकउ जुगुति न मन ठहरानी । सोचत भरतहि रैनि बिहानी ॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई । बैठत पठए रिषयँ बोलाई ॥ ४ ॥
एक भी युक्ति भरतजी के मन में न ठहरी । सोचते ही सोचते रात बीत गई । भरतजी प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वशिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा ॥ ४ ॥