दोहा :
भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ ॥ २३१ ॥
(अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है) ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने का! क्या कभी काँजी की बूँदों से क्षीरसमुद्र नष्ट हो सकता (फट सकता) है? ॥ २३१ ॥
चौपाई :
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई । गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई ॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी । सहज छमा बरु छाड़ै छोनी ॥ १ ॥
अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए । आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए । गो के खुर इतने जल में अगस्त्यजी डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता) को छोड़ दे ॥ १ ॥
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई । होइ न नृपमदु भरतहि भाई ॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना । सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ॥ २ ॥
मच्छर की फूँक से चाहे सुमेरु उड़ जाए, परन्तु हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो सकता । हे लक्ष्मण! मैं तुम्हारी शपथ और पिताजी की सौगंध खाकर कहता हूँ, भरत के समान पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है ॥ २ ॥
सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता । मिलइ रचइ परपंचु बिधाता ॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा । जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा ॥ ३ ॥
हे तात! गुरु रूपी दूध और अवगुण रूपी जल को मिलाकर विधाता इस दृश्य प्रपंच (जगत्) को रचता है, परन्तु भरत ने सूर्यवंश रूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण और दोष का विभाग कर दिया (दोनों को अलग-अलग कर दिया) ॥ ३ ॥
गहि गुन पय तजि अवगुण बारी । निज जस जगत कीन्हि उजिआरी ॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ । पेम पयोधि मगन रघुराऊ ॥ ४ ॥
गुणरूपी दूध को ग्रहण कर और अवगुण रूपी जल को त्यागकर भरत ने अपने यश से जगत् में उजियाला कर दिया है । भरतजी के गुण, शील और स्वभाव को कहते-कहते श्री रघुनाथजी प्रेमसमुद्र में मग्न हो गए ॥ ४ ॥
दोहा :
सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु ।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु ॥ २३२ ॥
श्री रामचंद्रजी की वाणी सुनकर और भरतजी पर उनका प्रेम देखकर समस्त देवता उनकी सराहना करने लगे (और कहने लगे) कि श्री रामचंद्रजी के समान कृपा के धाम प्रभु और कौन है? ॥ २३२ ॥
चौपाई :
जौं न होत जग जनम भरत को । सकल धरम धुर धरनि धरत को ॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा । को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा ॥ १ ॥
यदि जगत् में भरत का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता? हे रघुनाथजी! कविकुल के लिए अगम (उनकी कल्पना से अतीत) भरतजी के गुणों की कथा आपके सिवा और कौन जान सकता है? ॥ १ ॥
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी । अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी ॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए । मंदाकिनीं पुनीत नहाए ॥ २ ॥
लक्ष्मणजी, श्री रामचंद्रजी और सीताजी ने देवताओं की वाणी सुनकर अत्यंत सुख पाया, जो वर्णन नहीं किया जा सकता । यहाँ भरतजी ने सारे समाज के साथ पवित्र मंदाकिनी में स्नान किया ॥ २ ॥
सरित समीप राखि सब लोगा । मागि मातु गुर सचिव नियोगा ॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई । साथ निषादनाथु लघु भाई ॥ ३ ॥
फिर सबको नदी के समीप ठहराकर तथा माता, गुरु और मंत्री की आज्ञा माँगकर निषादराज और शत्रुघ्न को साथ लेकर भरतजी वहाँ चले जहाँ श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी थे ॥ ३ ॥ ।
समुझि मातु करतब सकुचाहीं । करत कुतरक कोटि मन माहीं ॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ । उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ ॥ ४ ॥
भरतजी अपनी माता कैकेयी की करनी को समझकर (याद करके) सकुचाते हैं और मन में करोड़ों (अनेकों) कुतर्क करते हैं (सोचते हैं) श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी मेरा नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह उठकर न चले जाएँ ॥ ४ ॥