दोहा :
सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि ।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि ॥ ११० ॥
अपने इष्टदेव को पहचानकर उसके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया । वह दण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसकी (प्रेम विह्वल) दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ११० ॥
चौपाई :
राम सप्रेम पुलकि उर लावा । परम रंक जनु पारसु पावा ॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ । मिलत धरें तन कह सबु कोऊ ॥ १ ॥
श्री रामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया । (उसे इतना आनंद हुआ) मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो । सब कोई (देखने वाले) कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ (परम तत्व) दोनों शरीर धारण करके मिल रहे हैं ॥ १ ॥
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा । लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा । जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा ॥ २ ॥
फिर वह लक्ष्मणजी के चरणों लगा । उन्होंने प्रेम से उमंगकर उसको उठा लिया । फिर उसने सीताजी की चरण धूलि को अपने सिर पर धारण किया । माता सीताजी ने भी उसको अपना बच्चा जानकर आशीर्वाद दिया ॥ २ ॥
कीन्ह निषाद दंडवत तेही । मिलेउ मुदित लखि राम सनेही ॥
पिअत नयन पुट रूपु पियुषा । मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा ॥ ३ ॥
फिर निषादराज ने उसको दण्डवत की । श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी जानकर वह उस (निषाद) से आनंदित होकर मिला । वह तपस्वी अपने नेत्र रूपी दोनों से श्री रामजी की सौंदर्य सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुंदर भोजन पाकर आनंदित होता है ॥ ३ ॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे । जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ॥
राम लखन सिय रूपु निहारी । होहिं सनेह बिकल नर नारी ॥ ४ ॥
(इधर गाँव की स्त्रियाँ कह रही हैं) हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है । श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर सब स्त्री-पुरुष स्नेह से व्याकुल हो जाते हैं ॥ ४ ॥