दोहा :
सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु ।
चरितकरत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु ॥ ८७ ॥
शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगलविग्रह) सच्चिदानंद-कन्द स्वरूप सूर्य कुल के ध्वजा रूप भगवान श्री रामचन्द्रजी मनुष्यों के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार रूपी समुद्र के पार उतरने के लिए पुल के समान हैं ॥ ८७ ॥
चौपाई :
यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई । मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई ॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा । मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा ॥ १ ॥
जब निषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनंदित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिए फल, मूल (कन्द) लेकर और उन्हें भारों (बहँगियों) में भरकर मिलने के लिए चला । उसके हृदय में हर्ष का पार नहीं था ॥ १ ॥
करि दंडवत भेंट धरि आगें । प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें ॥
सहज सनेह बिबस रघुराई । पूँछी कुसल निकट बैठाई ॥ २ ॥
दण्डवत करके भेंट सामने रखकर वह अत्यन्त प्रेम से प्रभु को देखने लगा । श्री रघुनाथजी ने स्वाभाविक स्नेह के वश होकर उसे अपने पास बैठाकर कुशल पूछी ॥ २ ॥
नाथ कुसल पद पंकज देखें । भयउँ भागभाजन जन लेखें ॥
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा । मैं जनु नीचु सहित परिवारा ॥ ३ ॥
निषादराज ने उत्तर दिया- हे नाथ! आपके चरणकमल के दर्शन से ही कुशल है (आपके चरणारविन्दों के दर्शन कर) आज मैं भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया । हे देव! यह पृथ्वी, धन और घर सब आपका है । मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूँ ॥ ३ ॥
कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ । थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ ॥
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना । मोहि दीन्ह पितु आयसु आना ॥ ४ ॥
अब कृपा करके पुर (श्रृंगवेरपुर) में पधारिए और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइए, जिससे सब लोग मेरे भाग्य की बड़ाई करें । श्री रामचन्द्रजी ने कहा - हे सुजान सखा! तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है, परन्तु पिताजी ने मुझको और ही आज्ञा दी है ॥ ४ ॥
दोहा :
बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु ।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु ॥ ८८ ॥
(उनकी आज्ञानुसार) मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारण कर और मुनियों के योग्य आहार करते हुए वन में ही बसना है, गाँव के भीतर निवास करना उचित नहीं है । यह सुनकर गुह को बड़ा दुःख हुआ ॥ ८८ ॥
चौपाई :
राम लखन सिय रूप निहारी । कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी ॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे । जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ॥ १ ॥
श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं । (कोई कहती है - ) हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है ॥ १ ॥
एक कहहिं भल भूपति कीन्हा । लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा ॥
तब निषादपति उर अनुमाना । तरु सिंसुपा मनोहर जाना ॥ २ ॥
कोई एक कहते हैं - राजा ने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्मा ने नेत्रों का लाभ दिया । तब निषाद राज ने हृदय में अनुमान किया, तो अशोक के पेड़ को (उनके ठहरने के लिए) मनोहर समझा ॥ २ ॥
लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा । कहेउ राम सब भाँति सुहावा ॥
पुरजन करि जोहारु घर आए । रघुबर संध्या करन सिधाए ॥ ३ ॥
उसने श्री रघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया । श्री रामचन्द्रजी ने (देखकर) कहा कि यह सब प्रकार से सुंदर है । पुरवासी लोग जोहार (वंदना) करके अपने-अपने घर लौटे और श्री रामचन्द्रजी संध्या करने पधारे ॥ ३ ॥
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई । कुस किसलयमय मृदुल सुहाई ॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी । दोना भरि भरि राखेसि पानी ॥ ४ ॥
गुह ने (इसी बीच) कुश और कोमल पत्तों की कोमल और सुंदर साथरी सजाकर बिछा दी और पवित्र, मीठे और कोमल देख-देखकर दोनों में भर-भरकर फल-मूल और पानी रख दिया (अथवा अपने हाथ से फल-मूल दोनों में भर-भरकर रख दिए) ॥ ४ ॥
दोहा :
सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ ।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ ॥ ८९ ॥
सीताजी, सुमंत्रजी और भाई लक्ष्मणजी सहित कन्द-मूल-फल खाकर रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी लेट गए । भाई लक्ष्मणजी उनके पैर दबाने लगे ॥ ८९ ॥
चौपाई :
उठे लखनु प्रभु सोवत जानी । कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी ॥
कछुक दूरि सजि बान सरासन । जागन लगे बैठि बीरासन ॥ १ ॥
फिर प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणी से मंत्री सुमंत्रजी को सोने के लिए कहकर वहाँ से कुछ दूर पर धनुष-बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने (पहरा देने) लगे ॥ १ ॥
गुहँ बोलाइ पाहरू प्रतीती । ठावँ ठावँ राखे अति प्रीती ॥
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई । कटि भाथी सर चाप चढ़ाई ॥ २ ॥
गुह ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर अत्यन्त प्रेम से जगह-जगह नियुक्त कर दिया और आप कमर में तरकस बाँधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा ॥ २ ॥
सोवत प्रभुहि निहारि निषादू । भयउ प्रेम बस हृदयँ बिषादू ॥
तनु पुलकित जलु लोचन बहई । बचन सप्रेम लखन सन कहई ॥ ३ ॥
प्रभु को जमीन पर सोते देखकर प्रेम वश निषाद राज के हृदय में विषाद हो आया । उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगा । वह प्रेम सहित लक्ष्मणजी से वचन कहने लगा- ॥ ३ ॥
भूपति भवन सुभायँ सुहावा । सुरपति सदनु न पटतर पावा ॥
मनिमय रचित चारु चौबारे । जनु रतिपति निज हाथ सँवारे ॥ ४ ॥
महाराज दशरथजी का महल तो स्वभाव से ही सुंदर है, इन्द्रभवन भी जिसकी समानता नहीं पा सकता । उसमें सुंदर मणियों के रचे चौबारे (छत के ऊपर बँगले) हैं, जिन्हें मानो रति के पति कामदेव ने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है ॥ ४ ॥
दोहा :
सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास ।
पलँग मंजु मनि दीप जहँ सब बिधि सकल सुपास ॥ ९० ॥
जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुंदर भोग पदार्थों से पूर्ण और फूलों की सुगंध से सुवासित हैं, जहाँ सुंदर पलँग और मणियों के दीपक हैं तथा सब प्रकार का पूरा आराम है, ॥ ९० ॥
चौपाई :
बिबिध बसन उपधान तुराईं । छीर फेन मृदु बिसद सुहाईं ॥
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं । निज छबि रति मनोज मदु हरहीं ॥ १ ॥
जहाँ (ओढ़ने-बिछाने के) अनेकों वस्त्र, तकिए और गद्दे हैं, जो दूध के फेन के समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) और सुंदर हैं, वहाँ (उन चौबारों में) श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी रात को सोया करते थे और अपनी शोभा से रति और कामदेव के गर्व को हरण करते थे ॥ १ ॥
ते सिय रामु साथरीं सोए । श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए ॥
मातु पिता परिजन पुरबासी । सखा सुसील दास अरु दासी ॥ २ ॥
वही श्री सीता और श्री रामजी आज घास-फूस की साथरी पर थके हुए बिना वस्त्र के ही सोए हैं । ऐसी दशा में वे देखे नहीं जाते । माता, पिता, कुटुम्बी, पुरवासी (प्रजा), मित्र, अच्छे शील-स्वभाव के दास और दासियाँ- ॥ २ ॥
जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाईं । महि सोवत तेइ राम गोसाईं ॥
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ । ससुर सुरेस सखा रघुराऊ ॥ ३ ॥
सब जिनकी अपने प्राणों की तरह सार-संभार करते थे, वही प्रभु श्री रामचन्द्रजी आज पृथ्वी पर सो रहे हैं । जिनके पिता जनकजी हैं, जिनका प्रभाव जगत में प्रसिद्ध है, जिनके ससुर इन्द्र के मित्र रघुराज दशरथजी हैं, ॥ ३ ॥
रामचंदु पति सो बैदेही । सोवत महि बिधि बाम न केही ॥
सिय रघुबीर कि कानन जोगू । करम प्रधान सत्य कह लोगू ॥ ४ ॥
और पति श्री रामचन्द्रजी हैं, वही जानकीजी आज जमीन पर सो रही हैं । विधाता किसको प्रतिकूल नहीं होता! सीताजी और श्री रामचन्द्रजी क्या वन के योग्य हैं? लोग सच कहते हैं कि कर्म (भाग्य) ही प्रधान है ॥ ४ ॥
दोहा :
कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह ।
जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ॥ ९१ ॥
कैकयराज की लड़की नीच बुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने रघुनंदन श्री रामजी और जानकीजी को सुख के समय दुःख दिया ॥ ९१ ॥
चौपाई :
भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी । कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी ॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी । राम सीय महि सयन निहारी ॥ १ ॥
वह सूर्यकुल रूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई । उस कुबुद्धि ने सम्पूर्ण विश्व को दुःखी कर दिया । श्री राम-सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुःख हुआ ॥ १ ॥
बोले लखन मधुर मृदु बानी । ग्यान बिराग भगति रस सानी ॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥ २ ॥
तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले - हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है । सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं ॥ २ ॥
जोग बियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । संपति बिपति करमु अरु कालू ॥ ३ ॥
संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं । जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं, ॥ ३ ॥
दरनि धामु धनु पुर परिवारू । सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं । मोह मूल परमारथु नाहीं ॥ ४ ॥
धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है । परमार्थतः ये नहीं हैं ॥ ४ ॥