दोहा :
बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात ।
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात ॥ ६८ ॥
हे तात! ‘वत्स’ कहकर, ‘लाल’ कहकर, ‘रघुपति’ कहकर, ‘रघुवर’ कहकर, मैं फिर कब तुम्हें बुलाकर हृदय से लगाऊँगी और हर्षित होकर तुम्हारे अंगों को देखूँगी! ॥ ६८ ॥
चौपाई :
लखि सनेह कातरि महतारी । बचनु न आव बिकल भइ भारी ॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना । समउ सनेहु न जाइ बखाना ॥ १ ॥
यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई हैं और इतनी अधिक व्याकुल हैं कि मुँह से वचन नहीं निकलता । श्री रामचन्द्रजी ने अनेक प्रकार से उन्हें समझाया । वह समय और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ १ ॥
तब जानकी सासु पग लागी । सुनिअ माय मैं परम अभागी ॥
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा । मोर मनोरथु सफल न कीन्हा ॥ २ ॥
तब जानकीजी सास के पाँव लगीं और बोलीं - हे माता! सुनिए, मैं बड़ी ही अभागिनी हूँ । आपकी सेवा करने के समय दैव ने मुझे वनवास दे दिया । मेरा मनोरथ सफल न किया ॥ २ ॥
तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू । करमु कठिन कछु दोसु न मोहू ॥
सुनिसिय बचन सासु अकुलानी । दसा कवनि बिधि कहौं बखानी ॥ ३ ॥
आप क्षोभ का त्याग कर दें, परन्तु कृपा न छोड़िएगा । कर्म की गति कठिन है, मुझे भी कुछ दोष नहीं है । सीताजी के वचन सुनकर सास व्याकुल हो गईं । उनकी दशा को मैं किस प्रकार बखान कर कहूँ! ॥ ३ ॥
बारहिं बार लाइ उर लीन्ही । धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही ॥
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा । जब लगि गंग जमुन जल धारा ॥ ४ ॥
उन्होंने सीताजी को बार-बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जब तक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग अचल रहे ॥ ४ ॥
दोहा :
सीतहि सासु आसीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार ।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार ॥ ६९ ॥
सीताजी को सास ने अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षाएँ दीं और वे (सीताजी) बड़े ही प्रेम से बार-बार चरणकमलों में सिर नवाकर चलीं ॥ ६९ ॥