दोहा :
प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर ।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ २१५ ॥
मन को प्रेम में मग्न जान राजा जनक ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के चरणों में सिर नवाकर गद्गद् (प्रेमभरी) गंभीर वाणी से कहा - ॥ २१५ ॥
चौपाई :
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक । मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा । उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥ १ ॥
हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है? ॥ १ ॥
सहज बिरागरूप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥ २ ॥
मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर । हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ । हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए ॥ २ ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका । बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥ ३ ॥
इनको देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया है । मुनि ने हँसकर कहा - हे राजन्! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा । आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता ॥ ३ ॥
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी । मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी ॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए । मम हित लागि नरेस पठाए ॥ ४ ॥
जगत में जहाँ तक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं । मुनि की (रहस्य भरी) वाणी सुनकर श्री रामजी मन ही मन मुस्कुराते हैं (हँसकर मानो संकेत करते हैं कि रहस्य खोलिए नहीं) । (तब मुनि ने कहा - ) ये रघुकुल मणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं । मेरे हित के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है ॥ ४ ॥
दोहा :
रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम ।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम ॥ २१६ ॥
ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं । सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है ॥ २१६ ॥
चौपाई :
मुनि तव चरन देखि कह राऊ । कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता । आनँदहू के आनँद दाता ॥ १ ॥
राजा ने कहा - हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता । ये सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देने वाले हैं ।
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि । कहि न जाइ मन भाव सुहावनि ॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू । ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥ २ ॥
इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकती । विदेह (जनकजी) आनंदित होकर कहते हैं - हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है ॥ २ ॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू । पुलक गात उर अधिक उछाहू ॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू । चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥ ३ ॥
राजा बार-बार प्रभु को देखते हैं (दृष्टि वहाँ से हटना ही नहीं चाहती) । (प्रेम से) शरीर पुलकित हो रहा है और हृदय में बड़ा उत्साह है । (फिर) मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में लिवा चले ॥ ३ ॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला । तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला ॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई । गयउ राउ गृह बिदा कराई ॥ ४ ॥
एक सुंदर महल जो सब समय (सभी ऋतुओं में) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया । तदनन्तर सब प्रकार से पूजा और सेवा करके राजा विदा माँगकर अपने घर गए ॥ ४ ॥
दोहा :
रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु ।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु ॥ २१७ ॥
रघुकुल के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे । उस समय पहरभर दिन रह गया था ॥ २१७ ॥
चौपाई :
लखन हृदयँ लालसा बिसेषी । जाइ जनकपुर आइअ देखी ॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं । प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं ॥ १ ॥
लक्ष्मणजी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें, परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं, इसलिए प्रकट में कुछ नहीं कहते, मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं ॥ १ ॥
राम अनुज मन की गति जानी । भगत बछलता हियँ हुलसानी ॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई । बोले गुर अनुसासन पाई ॥ २ ॥
(अन्तर्यामी) श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, (तब) उनके हृदय में भक्तवत्सलता उमड़ आई । वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते हुए मुस्कुराकर बोले ॥ २ ॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं । प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं ॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं । नगर देखाइ तुरत लै आवौं ॥ ३ ॥
हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप) के डर और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते । यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही (वापस) ले आऊँ ॥ ३ ॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती । कस न राम तुम्ह राखहु नीती ॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता । प्रेम बिबस सेवक सुखदाता ॥ ४ ॥
यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्रजी ने प्रेम सहित वचन कहे - हे राम! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे, हे तात! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के वशीभूत होकर सेवकों को सुख देने वाले हो ॥ ४ ॥