चौपाई :
चले राम लछिमन मुनि संगा । गए जहाँ जग पावनि गंगा ॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई । जेहि प्रकार सुरसरि महि आई ॥ १ ॥
श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले । वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी थीं । महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी ने वह सब कथा कह सुनाई जिस प्रकार देवनदी गंगाजी पृथ्वी पर आई थीं ॥ १ ॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए । बिबिध दान महिदेवन्हि पाए ॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया । बेगि बिदेह नगर निअराया ॥ २ ॥
तब प्रभु ने ऋषियों सहित (गंगाजी में) स्नान किया । ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान पाए । फिर मुनिवृन्द के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट पहुँच गए ॥ २ ॥
पुर रम्यता राम जब देखी । हरषे अनुज समेत बिसेषी ॥
बापीं कूप सरित सर नाना । सलिल सुधासम मनि सोपाना ॥ ३ ॥
श्री रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए । वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं ॥ ३ ॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा । कूजत कल बहुबरन बिहंगा ॥
बरन बरन बिकसे बनजाता । त्रिबिध समीर सदा सुखदाता ॥ ४ ॥
मकरंद रस से मतवाले होकर भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं । रंग-बिरंगे (बहुत से) पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं । रंग-रंग के कमल खिले हैं । सदा (सब ऋतुओं में) सुख देने वाला शीतल, मंद, सुगंध पवन बह रहा है ॥ ४ ॥
दोहा :
सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास ।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास ॥ २१२ ।
पुष्प वाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते और सुंदर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं ॥ २१२ ॥
चौपाई :
बनइ न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई ॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी । मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी ॥ १ ॥
नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता । मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है । सुंदर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया है ॥ १ ॥
धनिक बनिक बर धनद समाना । बैठे सकल बस्तु लै नाना ।
चौहट सुंदर गलीं सुहाई । संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥ २ ॥
कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे हैं । सुंदर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगंध से सिंची रहती हैं ॥ २ ॥
मंगलमय मंदिर सब केरें । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें ॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता । धरमसील ग्यानी गुनवंता ॥ ३ ॥
सबके घर मंगलमय हैं और उन पर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने अंकित किया है । नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं ॥ ३ ॥
अति अनूप जहँ जनक निवासू । बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ॥
होत चकित चित कोट बिलोकी । सकल भुवन सोभा जनु रोकी ॥ ४ ॥
जहाँ जनकजी का अत्यन्त अनुपम (सुंदर) निवास स्थान (महल) है, वहाँ के विलास (ऐश्वर्य) को देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं (मनुष्यों की तो बात ही क्या!) । कोट (राजमहल के परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, (ऐसा मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकों की शोभा को रोक (घेर) रखा है ॥ ४ ॥
दोहा :
धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति ।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति ॥ २१३ ॥
उज्ज्वल महलों में अनेक प्रकार के सुंदर रीति से बने हुए मणि जटित सोने की जरी के परदे लगे हैं । सीताजी के रहने के सुंदर महल की शोभा का वर्णन किया ही कैसे जा सकता है ॥ २१३ ॥
चौपाई :
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ॥
बनी बिसाल बाजि गज साला । हय गय रख संकुल सब काला ॥ १ ॥
राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा हीरों के चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं । वहाँ (मातहत) राजाओं, नटों, मागधों और भाटों की भीड़ लगी रहती है । घोड़ों और हाथियों के लिए बहुत बड़ी-बड़ी घुड़सालें और गजशालाएँ (फीलखाने) बनी हुई हैं, जो सब समय घोड़े, हाथी और रथों से भरी रहती हैं ॥ १ ॥
सूर सचिव सेनप बहुतेरे । नृपगृह सरिस सदन सब केरे ॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा । उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥ २ ॥
बहुत से शूरवीर, मंत्री और सेनापति हैं । उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं । नगर के बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत से राजा लोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए) हैं ॥ २ ॥
देखि अनूप एक अँवराई । सब सुपास सब भाँति सुहाई ।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना । इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना ॥ ३ ॥
(वहीं) आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और जो सब तरह से सुहावना था, विश्वामित्रजी ने कहा - हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाए ॥ ३ ॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता । उतरे तहँ मुनि बृंद समेता ॥
बिस्वामित्र महामुनि आए । समाचार मिथिलापति पाए ॥ ४ ॥
कृपा के धाम श्री रामचन्द्रजी ‘बहुत अच्छा स्वामिन्!’ कहकर वहीं मुनियों के समूह के साथ ठहर गए । मिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए हैं, ॥ ४ ॥
दोहा :
संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति ।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति ॥ २१४ ॥
तब उन्होंने पवित्र हृदय के (ईमानदार, स्वामिभक्त) मंत्री बहुत से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानंदजी) और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों को साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नता के साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी से मिलने चले ॥ २१४ ॥
चौपाई :
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा । दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा ॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे । जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे ॥ १ ॥
राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया । मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया । फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए ॥ १ ॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा । बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई । गए रहे देखन फुलवाई ॥ २ ॥
बार-बार कुशल प्रश्न करके विश्वामित्रजी ने राजा को बैठाया । उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गए थे ॥ २ ॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा । लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥
उठे सकल जब रघुपति आए । बिस्वामित्र निकट बैठाए ॥ ३ ॥
सुकुमार किशोर अवस्था वाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले और सारे विश्व के चित्त को चुराने वाले हैं । जब रघुनाथजी आए तब सभी (उनके रूप एवं तेज से प्रभावित होकर) उठकर खड़े हो गए । विश्वामित्रजी ने उनको अपने पास बैठा लिया ॥ ३ ॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता । बारि बिलोचन पुलकित गाता ॥
मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥ ४ ॥
दोनों भाइयों को देखकर सभी सुखी हुए । सबके नेत्रों में जल भर आया (आनंद और प्रेम के आँसू उमड़ पड़े) और शरीर रोमांचित हो उठे । रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए ॥ ४ ॥