एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगे नष्टः परन्तप ॥ २ ॥
शब्दार्थ
एवम् – इस प्रकार; परम्परा – गुरु-परम्परा से; प्राप्तम् – प्राप्त; इमम् – इस विज्ञान को; राज-ऋषयः – साधू राजाओं ने; विदुः – जाना; सः – वह ज्ञान; कालेन – कालक्रम में; इह – इस संसार में; महता – महान; योगः – परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, योगविद्या; नष्टः – छिन्न-भिन्न हो गया; परन्तप – हे शत्रुओं को दमन करने वाले, अर्जुन ।
भावार्थ
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा । किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है ।
तात्पर्य
यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि गीता विशेष रूप से राजर्षियों के लिए थी क्योंकि वे इसका उपयोग प्रजा के ऊपर शासन करने में करते थे । निश्चय ही भगवद्गीता कभी भी आसुरी पुरुषों के लिए नहीं थी जिनसे किसी को भी इसका लाभ न मिलता और जो अपनी-अपनी सनक के अनुसार विभिन्न प्रकार की विवेचना करते । अतः जैसे ही असाधु भाष्यकारों के निहित स्वार्थों से गीता का मूल उद्देश्य उच्छिन्न हुआ वैसे ही पुनः गुरुपरम्परा स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई । पाँच हजार वर्ष पूर्व भगवान् ने स्वयं देखा कि गुरु-परम्परा टूट चुकी है, अतः उन्होंने घोषित किया कि गीता का उद्देश्य नष्ट हो चुका है । इसी प्रकार इस समय गीता के इतने संस्करण उपलब्ध हैं (विशेषतया अंग्रेजी में) कि उनमें से प्रायः सभी प्रामाणिक गुरु-परम्परा के अनुसार नहीं हैं । विभिन्न संसारी विद्वानों ने गीता की असंख्य टीकाएँ की हैं, किन्तु वे प्रायः सभी श्रीकृष्ण को स्वीकार नहीं करते, यद्यपि वे कृष्ण के नाम पर अच्छा व्यापार चलाते हैं । यह आसुरी प्रवृत्ति है, क्योंकि असुरगण ईश्वर में विश्वास नहीं करते, वे केवल परमेश्वर के गुणों का लाभ उठाते हैं । अतएव अंग्रेजी में गीता के एक संस्करण की नितान्त आवश्यकता थी जो परम्परा (गुरु-परम्परा) से प्राप्त हो । प्रस्तुत प्रयास इसी आवश्यकता की पूर्ति के उद्देश्य से किया गया है । भगवद्गीता यथारूप मानवता के लिए महान वरदान है, किन्तु यदि इसे मानसिक चिन्तन समझा जाय तो यह समय का अपव्यय होगा ।