श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ १ ॥
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; इमम् – इस; विवस्वते – सूर्यदेव को; योगम् – परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध की विद्या को; प्रोक्तवान् – उपदेश दिया; अहम् – मैंने; अव्ययम् – अमर; विवस्वान् – विवस्वान् (सूर्यदेव के नाम) ने; मनवे – मनुष्यों के पिता (वैवस्वत) से; प्राह – कहा; मनुः – मनुष्यों के पिता ने; इक्ष्वाकवे – राजा इक्ष्वाकु से; अब्रवीत् – कहा ।
भावार्थ
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया ।
तात्पर्य
यहाँ पर हमें भगवद्गीता का इतिहास प्राप्त होता है । यह अत्यन्त प्राचीन बताया गया है, जब इसे सूर्यलोक इत्यादि सम्पूर्ण लोकों के राजा को प्रदान किया गया था । समस्त लोकों के राजा विशेष रूप से निवासियों की रक्षा के निमित्त होते हैं, अतः राजन्यवर्ग को भगवद्गीता की विद्या को समझना चाहिए जिससे वे नागरिकों (प्रजा) पर शासन कर सकें और उन्हें कामरूपी भवबन्धन से बचा सकें । मानव जीवन का उद्देश्य भगवान् के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध के आध्यात्मिक ज्ञान का विकास है और सारे राज्यों तथा समस्त लोकों के शासनाध्यक्षों को चाहिए कि शिक्षा, संस्कृति तथा भक्ति द्वारा नागरिकों को यह पाठ पढ़ाएँ । दूसरे शब्दों में, सारे राज्य के शासनाध्यक्ष कृष्णभावनामृत विद्या का प्रचार करने के लिए होते हैं, जिससे जनता इस महाविद्या का लाभ उठा सके और मनुष्य जीवन के अवसर का लाभ उठाते हुए सफल मार्ग का अनुसरण कर सके । इस मन्वन्तर में सूर्यदेव विवस्वान् कहलाता है यानी सूर्य का राजा , जो सौरमंडल के अन्तर्गत समस्त ग्रहों (लोकों) का उद्गम है । ब्रह्मसंहिता में (५.५२) कहा गया है –
यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
ब्रह्माजी ने कहा, “मैं उन श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो आदि पुरुष हैं और जिनके आदेश से समस्त लोकों का राजा सूर्य प्रभूत शक्ति तथा ऊष्मा धारण करता है । यह सूर्य भगवान् के नेत्र तुल्य है और यह उनकी आज्ञानुसार अपनी कक्षा को तय करता है ।”
सूर्य सभी लोकों का राजा है तथा सूर्यदेव (विवस्वान्) सूर्य ग्रह पर शासन करता है, जो ऊष्मा तथा प्रकाश प्रदान करके अन्य समस्त लोकों को अपने नियन्त्रण में रखता है । सूर्य कृष्ण के आदेश पर घूमता है और भगवान् कृष्ण ने विवस्वान् को भगवद्गीता की विद्या समझाने के लिए अपना पहला शिष्य चुना । अतः गीता किसी मामूली सांसारिक विद्यार्थी के लिए कोई काल्पनिक भाष्य नहीं, अपितु ज्ञान का मानक ग्रंथ है, जो अनन्त काल से चला आ रहा है ।
महाभारत में (शान्ति पर्व ३४८.५१-५२) हमें गीता का इतिहास इस रूप में प्राप्त होता है–
त्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान्मनवे ददौ ।
मनुश्च लोकभृत्यर्थं सुतायेक्ष्वाकवे ददौ ।
इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थितः ॥
“त्रेतायुग के आदि में विवस्वान् ने परमेश्वर सम्बन्धी इस विज्ञान का उपदेश मनु को दिया और मनुष्यों के जनक मनु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया । इक्ष्वाकु इस पृथ्वी के शासक थे और उस रघुकुल के पूर्वज थे, जिसमें भगवान् श्रीराम ने अवतार लिया ।” इससे प्रमाणित होता है कि मानव समाज में महाराज इक्ष्वाकु के काल से ही भगवद्गीता विद्यमान थी ।
इस समय कलियुग के केवल ५,००० वर्ष व्यतीत हुए हैं जबकि इसकी पूर्णायु ४,३२,००० वर्ष है । इसके पूर्व द्वापरयुग (८,००,००० वर्ष) था और इसके भी पूर्व त्रेतायुग (१२,००,००० वर्ष) था । इस प्रकार लगभग २०,०५,००० वर्ष पूर्व मनु ने अपने शिष्य तथा पुत्र इक्ष्वाकु से जो इस पृथ्वी के राजा थे, श्रीमद्भगवद्गीता कही । वर्तमान मनु की आयु लगभग ३०,५३,००,००० वर्ष अनुमानित की जाती है जिसमें से १२,०४,००,००० वर्ष बीत चुके हैं । यह मानते हुए कि मनु के जन्म के पूर्व भगवान् ने अपने शिष्य सूर्यदेव विवस्वान् को गीता सुनाई, मोटा अनुमान यह है कि गीता कम से कम १२,०४,००,००० वर्ष पहले कही गई और मानव समाज में यह २० लाख वर्षों से विद्यमान रही । इसे भगवान् ने लगभग ५,००० वर्ष पूर्व अर्जुन से पुनः कहा । गीता के अनुसार ही तथा इसके वक्ता भगवान् कृष्ण के कथन के अनुसार यह गीता के इतिहास का मोटा अनुमान है । सूर्यदेव विवस्वान् को इसीलिए गीता सुनाई गई क्योंकि वह क्षत्रिय था और उन समस्त क्षत्रियों का जनक है जो सूर्यवंशी हैं । चूँकि भगवद्गीता वेदों के ही समान है क्योंकि इसे श्रीभगवान ने कहा था, अतः यह ज्ञान अपौरुषेय है । चूँकि वैदिक आदेशों को यथारूप में बिना किसी मानवीय विवेचना के स्वीकार किया जाता है फलतः गीता को भी किसी सांसारिक विवेचना के बिना स्वीकार किया जाना चाहिए । संसारी तार्किकजन अपनी-अपनी विधि से गीता के विषय में चिन्तन कर सकते हैं, किन्तु यह यथारूप भगवद्गीता नहीं है । अतः भगवद्गीता को गुरु-परम्परा से यथारूप में ग्रहण करना चाहिए । यहाँ पर यह वर्णन हुआ है कि भगवान् ने इसे सूर्यदेव से कहा, सूर्यदेव ने अपने पुत्र मनु से और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा ।