स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नर
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ ४५ ॥
शब्दार्थ
स्वे स्वे – अपने अपने; कर्मणि – कर्म में; अभिरतः – संलग्न; संसिद्धिम् – सिद्धि को; लभते – प्राप्त करता है; नरः – मनुष्य; स्व-कर्म – अपनेकर्म में; निरतः – लगा हुआ; सिद्धिम – सिद्धि को; यथा – जिस प्रकार; विदन्ति – प्राप्त करता है; तत् – वह; शृणु – सुनो ।
भावार्थ
अपने अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है । अब तुम मुझसे सुनो कि यह किस प्रकार किया जा सकता है ।