कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ ४४ ॥
शब्दार्थ
कृषि – हल जोतना; गो – गायों की; रक्ष्य – रक्षा; वानिज्यम् – व्यापार; वैश्य – वैश्य का; कर्म – कर्तव्य; स्वभाव-जम् – स्वाभाविक; परिचर्या – सेवा; आत्मकम् – से युक्त; कर्म – कर्तव्य; शूद्रस्य – शुद्र के; अपि – भी; स्वभाव-जम् – स्वाभाविक ।
भावार्थ
कृषि करना, गो-रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं और शूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना है ।