अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
अभिसन्धाय - इच्छा कर के; तु - लेकिन; फलम् - फल को; दम्भ - घमंड; अर्थम् - के लिए; अपि - भी; च - तथा; एव - निश्चय ही; यत् - जो; इज्यते - किया जाता है; भरत-श्रेष्ठ - हे भरतवंशियों में प्रमुख; तम् - उस; यज्ञम् - यज्ञ को; विद्धि - जानो; राजसम् - रजोगुणी ।
भावार्थ
लेकिन हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए या गर्ववश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानो ।
तात्पर्य
कभी-कभी स्वर्गलोक पहुँचने या किसी भौतिक लाभ के लिए यज्ञ तथा अनुष्ठान किये जाते हैं । ऐसे यज्ञ या अनुष्ठान राजसी माने जाते हैं ।