अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदिष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
अफल-आकाङ्क्षिभिः - फल की इच्छा से रहित; यज्ञः - यज्ञ; विधि-दिष्टः - शास्त्रों के निर्देशानुसार; यः - जो; इज्यते - सम्पन्न किया जाता है; यष्टव्यम् - सम्पन्न किया जाना चाहिए; एव - निश्चय ही; इति - इस प्रकार; मनः - मन में; समाधाय - स्थिर करके; सः - वह; सत्त्विकः - सतोगुणी ।
भावार्थ
यज्ञों में वही यज्ञ सात्त्विक होता है, जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो फल की इच्छा नहीं करते ।
तात्पर्य
सामान्यतया यज्ञ किसी प्रयोजन से किया जाता है । लेकिन यहाँ पर बताया गया है कि यज्ञ बिना किसी इच्छा के सम्पन्न किया जाना चाहिए । इसे कर्तव्य समझ कर किया जाना चाहिए । उदाहरणार्थ, मन्दिरों या गिरजाघरों में मनाये जाने वाले अनुष्ठान सामान्यतया भौतिक लाभ को दृष्टि में रख कर किये जाते हैं, लेकिन यह सतोगुण में नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि वह कर्तव्य मानकर मन्दिर या गिरजाघर में जाए, भगवान् को नमस्कार करे और फूल तथा प्रसाद चढ़ाए । प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि केवल ईश्वर की पूजा करने के लिए मन्दिर जाना व्यर्थ है । लेकिन शास्त्रों में आर्थिक लाभ के लिए पूजा करने का आदेश नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि केवल अर्चाविग्रह को नमस्कार करने जाए । इससे मनुष्य सतोगुण को प्राप्त होगा । प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्तव्य है कि वह शास्त्रों के आदेशों का पालन करे और भगवान् को नमस्कार करे ।