रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
रजो - रजोगुण; राग-आत्मकम् - आकांक्षा या काम से उत्पन्न; विद्धि - जानो; तृष्णा - लोभ से; सङग - संगति से; समुद्भवम् - उत्पन्न; तत् - वह; निबध्नाति - बाँधता है; कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; कर्म-सङगेन - सकाम कर्म की संगति से; देहिनम् - देहधारी को ।
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण की उत्पत्ति असीम आकांक्षाओं तथा तृष्णाओं से होती है और इसी के कारण से यह देहधारी जीव सकाम कर्मों से बँध जाता है ।
तात्पर्य
रजोगुण की विशेषता है, पुरुष तथा स्त्री का पारस्परिक आकर्षण । स्त्री पुरुष के प्रति और पुरुष स्त्री के प्रति आकर्षित होता है । यह रजोगुण कहलाता है । जब इस रजोगुण में वृद्धि हो जाती है, तो मनुष्य भौतिक भोग के लिए लालायित होता है । वह इन्द्रियतृप्ति चाहता है । इस इन्द्रियतृप्ति के लिए वह रजोगुणी मनुष्य समाज में या राष्ट्र में सम्मान चाहता है और सुन्दर सन्तान, स्त्री तथा घर सहित सुखी परिवार चाहता है । ये सब रजोगुण के प्रतिफल हैं । जब तक मनुष्य इनकी लालसा करता रहता है, तब तक उसे कठिन श्रम करना पड़ता है । अतः यहाँ पर यह स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य अपने कर्मफलों से सम्बद्ध होकर ऐसे कर्मों से बँध जाता है । अपनी स्त्री, पुत्रों तथा समाज को प्रसन्न करने तथा अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए मनुष्य को कर्म करना होता है । अतएव सारा संसार ही न्यूनाधिक रूप से रजोगुणी है । आधुनिक सभ्यता में रजोगुण का मानदण्ड ऊँचा है । प्राचीन काल में सतोगुण को उच्च अवस्था माना जाता था । यदि सतोगुणी लोगों को मुक्ति नहीं मिल पाती, तो जो रजोगुणी हैं, उनके विषय में क्या कहा जाये ?