तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ ६ ॥

शब्दार्थ

तत्र - वहाँ; सत्त्वम् - सतोगुण; निर्मलत्वात् - भौतिक जगत् में शुद्धतम होने के कारण; प्रकाशकम् - प्रकाशित करता हुआ; अनामयम् - किसी पापकर्म के बिना; सुख - सुख की; सङ्गेन - संगति के द्वारा; बध्नाति - बाँधता है; ज्ञान - ज्ञान की; सङ्गेन - संगति से; - भी; अनघ - हे पापरहित ।

भावार्थ

हे निष्पाप! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के कारण प्रकाश प्रदान करने वाला और मनुष्यों को सारे पाप कर्मों से मुक्त करने वाला है । जो लोग इस गुण में स्थित होते हैं, वे सुख तथा ज्ञान के भाव से बँध जाते हैं ।

तात्पर्य

प्रकृति द्वारा बद्ध किये गये जीव कई प्रकार के होते हैं । कोई सुखी है और कोई अत्यन्त कर्मठ है, तो दूसरा असहाय है । इस प्रकार के मनोभाव ही प्रकृति में जीव की बद्धावस्था के कारणस्वरूप हैं । भगवद्गीता के इस अध्याय में इसका वर्णन हुआ है कि वे किस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार से बद्ध हैं । सर्वप्रथम सतोगुण पर विचार किया गया है । इस जगत् में सतोगुण विकसित करने का लाभ यह होता है कि मनुष्य अन्य बद्धजीवों की तुलना में अधिक चतुर हो जाता है । सतोगुणी पुरुष को भौतिक कष्ट उतना पीडित नहीं करते और उसमें भौतिक ज्ञान की प्रगति करने की सूझ होती है । इसका प्रतिनिधि ब्राह्मण है, जो सतोगुणी माना जाता है । सुख का यह भाव इस विचार के कारण है कि सतोगुण में पापकर्मों से प्रायः मुक्त रहा जाता है । वास्तव में वैदिक साहित्य में यह कहा गया है कि सतोगुण का अर्थ ही है अधिक ज्ञान तथा सुख का अधिकाधिक अनुभव ।

सारी कठिनाई यह है कि जब मनुष्य सतोगुण में स्थित होता है, तो उसे ऐसा अनुभव होता है कि वह ज्ञान में आगे है और अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ है । इस प्रकार वह बद्ध हो जाता है । इसके उदाहरण वैज्ञानिक तथा दार्शनिक हैं । इनमें से प्रत्येक को अपने ज्ञान का गर्व रहता है और चूँकि वे अपने रहन-सहन को सुधार लेते हैं, अतएव उन्हें भौतिक सुख की अनुभूति होती है । बद्ध जीवन में अधिक सुख का यह भाव उन्हें भौतिक प्रकृति के गुणों से बाँध देता है । अतएव वे सतोगुण में रहकर कर्म करने के प्रति आकृष्ट होते हैं । और जब तक इस प्रकार कर्म करते रहने का आकर्षण बना रहता है, तब तक उन्हें किसी न किसी प्रकार का शरीर धारण करना होता है । इस प्रकार उनकी मुक्ति की या वैकुण्ठलोक जाने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती । वे बारम्बार दार्शनिक, वैज्ञानिक या कवि बनते रहते हैं और बारम्बार जन्म-मृत्यु के उन्हीं दोषों में बँधते रहते हैं । लेकिन माया-मोह के कारण वे सोचते हैं कि इस प्रकार का जीवन आनन्दप्रद है ।