समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ १८ ॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
समः - समान; शत्रौ - शत्रु में; च - तथा; मित्रे - मित्र में; च - भी; तथा - उसी प्रकार; मान - सम्मान; अपमानयोः - तथा अपमान में; शीत - जाड़ा; उष्ण - गर्मी; सुख - सुख; दुःखेषु - तथा दुख में; समः - समभाव; सङग-विवर्जितः - समस्त संगति से मुक्त; तुल्य - समान; निन्दा - अपयश; स्तुतिः - तथा यश में; मौनी - मौन; सन्तुष्टः - सन्तुष्ट; भक्तिमान् - भक्ति में रत; मे - मेरा; प्रियः - प्रिय; नरः - मनुष्य ।
भावार्थ
जो मित्रों तथा शत्रुओं के लिए समान है, जो मान तथा अपमान, शीत तथा गर्मी, सुख तथा दुख, यश तथा अपयश में समभाव रखता है, जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है, जो सदैव मौन और किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, जो किसी प्रकार के घर-बार की परवाह नहीं करता, जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है - ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है ।
तात्पर्य
भक्त सदैव कुसंगति से दूर रहता है । मानव समाज का यह स्वभाव है कि कभी किसी की प्रशंसा की जाती है, तो कभी उसकी निन्दा की जाती है । लेकिन भक्त कृत्रिम यश तथा अपयश, दुःख या सुख से ऊपर उठा हुआ होता है । वह अत्यन्त धैर्यवान् होता है । वह कृष्णकथा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बोलता । अतः उसे मौनी कहा जाता है । मौनी का अर्थ यह नहीं कि वह बोले नहीं, अपितु यह कि वह अनर्गल आलाप न करे । मनुष्य को आवश्यकता पर बोलना चाहिए और भक्त के लिए सर्वाधिक अनिवार्य वाणी तो भगवान् के लिए बोलना है । भक्त समस्त परिस्थितियों में सुखी रहता है । कभी उसे स्वादिष्ट भोजन मिलता है तो कभी नहीं, किन्तु वह सन्तुष्ट रहता है । वह आवास की सुविधा की चिन्ता नहीं करता । वह कभी पेड़ के नीचे रह सकता है, तो कभी अत्यन्त उच्च प्रासाद में, किन्तु वह इनमें से किसी के प्रति आसक्त नहीं रहता । वह स्थिर कहलाता है, क्योंकि वह अपने संकल्प तथा ज्ञान में दृढ़ होता है । भले ही भक्त के लक्षणों की कुछ पुनरावृत्ति हुई हो, लेकिन यह इस बात पर बल देने के लिए है कि भक्त को ये सारे गुण अर्जित करने चाहिए । सद्गुणों के बिना कोई शुद्ध भक्त नहीं बन सकता । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणाः - जो भक्त नहीं है, उसमें सद्गुण नहीं होता । जो भक्त कहलाना चाहता है, उसे सद्गुणों का विकास करना चाहिए । यह अवश्य है कि उसे इन गुणों के लिए अलग से बाह्य प्रयास नहीं करना पड़ता, अपितु कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में संलग्न रहने के कारण उसमें ये गुण स्वतः ही विकसित हो जाते हैं ।