यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
यः - जो; न - कभी नहीं; हृष्यति - हर्षित होता है; न - कभी नहीं; द्वेष्टि - शोक करता है; न - कभी नहीं; शोचति - पछतावा करता है; न - कभी नहीं; काङ्क्षति - इच्छा करता है; शुभ - शुभ; अशुभ - तथा अशुभ का; परित्यागी - त्याग करने वाला; भक्ति-मान् - भक्त; यः - जो; सः - वह है; मे - मेरा; प्रियः - प्रिय ।
भावार्थ
जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न तो पछताता है, न इच्छा करता है, तथा जो शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है ।
तात्पर्य
शुद्ध भक्त भौतिक लाभ से न तो हर्षित होता है और न हानि से दुःखी होता है, वह पुत्र या शिष्य की प्राप्ति के लिए न तो उत्सुक रहता है, न ही उनके न मिलने पर दुःखी होता है । वह अपनी किसी प्रिय वस्तु के खो जाने पर उसके लिए पछताता नहीं । इसी प्रकार यदि उसे अभीप्सित की प्राप्ति नहीं हो पाती तो वह दुःखी नहीं होता । वह समस्त प्रकार के शुभ, अशुभ तथा पापकर्मों से सदैव परे रहता है । वह परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए बड़ी से बड़ी विपत्ति सहने को तैयार रहता है । भक्ति के पालन में उसके लिए कुछ भी बाधक नहीं बनता । ऐसा भक्त कृष्ण को अतिशय प्रिय होता है ।