नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥ ४० ॥
शब्दार्थ
नमः – नमस्कार; पुरस्तात् – सामने से; अथ – भी; पृष्ठतः – पीछे से; ते – आपको; नमः-अस्तु – मैं नमस्कार करता हूँ; ते – आपको; सर्वतः – सभी दिशाओं से; एव – निस्सन्देह; सर्व – क्योंकि आप सब कुछ हैं; अनन्त-वीर्य – असीम पौरुष; अमित-विक्रमः – तथा असीम बल; त्वम् – आप; सर्वम् – सब कुछ; समाप्नोषि – आच्छादितकरते हओ; ततः – अतएव; असि – हो; सर्वः – सब कुछ ।
भावार्थ
आपको आगे, पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है । हे असीम शक्ति! आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं । आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप सब कुछ हैं ।
तात्पर्य
कृष्ण के प्रेम से अभिभूत उनका मित्र अर्जुन सभी दिशाओं से उनको नमस्कार कर रहा है । वह स्वीकार करता है कि कृष्ण समस्त बल तथा पराक्रम के स्वामी हैं और युद्धभूमि में एकत्र समस्त योद्धाओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं । विष्णुपुराण में (१.९.६९) कहा गया है –
योऽयं तवागतो देव समीपं देवतागणः ।
स त्वमेव जगत्स्स्रष्टा यतः सर्वगतो भवान् ॥
“आपके समक्ष जो भी आता है, चाहे वह देवता ही क्यों न हो, हे भगवान् ! वह आपके द्वारा ही उत्पन्न है ।”